________________ वस्तुत: ध्यान, व्रत, जप आदि सभी आचार बिना निर्मल चित्त के करने से कोई लाभ नहीं है। क्योंकि मन की शुद्धि ही यथार्थ शुद्धि है। ___मन की शुद्धि के बिना व्रतों का अनुष्ठान करना वृथा कायक्लेश है। इसके लिए इन्द्रियों का विषयों का निरोध आवश्यक है। और जब तक इन्द्रियों पर जय नहीं होती, तब तक कषायों पर जय नहीं होती। अत: ध्यान की शुद्धता या सिद्धि ही कर्मसमूह को नष्ट करती है। और आत्मा का ध्यान शरीर स्थित आत्मा के स्वरूप को जानने में समर्थ होता है। क्योंकि ध्यान ही जहाँ सब अतिचारों का प्रतिक्रमण है। वहाँ आत्मज्ञान की प्राप्ति से कर्मक्षय तथा कर्मक्षय से मोक्ष की प्राप्ति होती है। ध्यातव्य है कि ध्यान दारा शुभ-अशुभ दोनों ही प्राप्ति संभव है अर्थात् इसमें चिन्तामणि की भी प्राप्ति होती है और खलों के टुकडे भी प्राप्त होते हैं। इस प्रकार ध्यानसिद्धि की दृष्टि से बाह्य साधनों के निरोध के साथ स्ववृत्ति तथा साम्यभाव का होना अनिवार्य है। जबकि साधक को आत्मा के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई देता / अगर साधक को सांसारिक चिन्ताओं का ध्यान अनायास हो जाये तो उन व्यापारों को अन्तर्मुख करके गुरु अथवा भगवान् का स्मरण करते हुये निर्जन स्थान में सर्वप्रकार की कायचेष्टाओं से रहित होकर सुखासन से बैठना चाहिये, क्योंकि इससे भी ध्यान में स्थिरता आती है।' जैसा कि आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने आत्मध्यान प्रक्रिया को ज्ञापित करने हुये लिखा है। मन की एकाग्रता से इन्द्रियों को वश में कर ध्वस्त या नष्ट कर दी है। स्वच्छन्दवृत्ति जिसने ऐसा पुरुष अपने में ही स्थित आत्मा को अपने ही दारा ध्यावे। ..श्रीकुन्दकुन्द आचार्य ने आत्मध्यान की विधि का प्रतिपादन करते हुए लिखा है - मुनि सब कषायों अर्थात् गारव, मद, राग, द्वेष तथा मोह को छोड़कर और लोकव्यवहार से विरक्त होकर ध्यान में स्थित हुआ आत्मा का ध्यान करता है। आगे योगों की चर्या का निर्देश करते हुए लिखा है कि पाँच महाव्रतों से युक्त हो तथा पाँच समितियों व तीन गुप्तियों से युक्त हो रत्नत्रय से संयुक्त हो हे मुनिजन ! तुम सदा ध्यान अध्ययन करो। मन, वचन, काय से वर्षा, शीत और उष्ण इन तीन काल योगों को धारण कर माया, मिथ्या और निदान इन तीन शल्यों से रहित होकर सम्यग्दर्श, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से मंडित होकर और दो दोष अर्थात् रागद्वेष से रहित होता हुआ योगी ध्यानी मुनि सर्व कर्म रहित परमात्मा का ध्यान करता है। 1. योगप्रदीप, 16. 2. नियमसार, गाथा 93. 3. योगशास्त्र, 4/113. 4. इष्टोपदेश, 20. 5. तत्त्वार्थराजवार्तिक, पृ. 626. 6. तत्त्वानुशासन, 172. 7.योगशतक, 59-60. 8. इष्टोपदेश, 22. 9. मोक्षपाहुड, गाथा 27, 33, 44 179