________________ सिद्धि को प्राप्त करना ही क्रमश: सूक्ष्मक्रि याअप्रतिपाती शुक्लध्यान एवं समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान का फल है।' इस ध्यान के दारा कर्मों का क्षय होता है और मन का आत्मा की सत्ता में विलय हो जाता है। शुक्लध्यान के द्वारा ही साधक अपनी आत्मिक अशुद्धियों को पूरी तरह से शुद्ध करने में समर्थ हो जाता है। अत: शुक्लध्यान ही सर्वोत्कृष्ट तप है, संमस्त धार्मिक क्रियाओं की यह चरम सीमा है। इंस ध्यान की साधना के द्वारा साधक अपने चरम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। जैनधर्म एवं साधना की परम्परा में जो पद्धतियाँ आचार्य कुन्दकुन्द और आचार्य पूज्यपाद जैसे महामेरु साधकों ने स्थापित एवं विकसित की थीं, उनकी ही पुन:प्राणप्रतिष्ठा करने के लिए आचार्य शुभचन्द्र ने उन्हें अनुकूल संस्कारों से संस्कारित करते हुए प्रस्तुत करसुग्राहा बजाया है। इसके साथ ही इनमें पार्थिव, आग्नेय आदि धारणाओं और शिवतत्त्व आदि अवधारणाओं को सर्वदा नवीन रूप में प्रस्तुत कर ध्यान-योग परम्परा को विशिष्ट एवं महत्त्वपूर्ण आयाम दिया है। और इसके लिए आचार्य शुभचन्द्र का नाम सदैव याद किया जाता रहेगा। 1. षट्खण्डागम, 13/5/4/26/88. 176