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________________ शुक्लध्यान के स्वामी - तत्त्वार्थसूत्र में प्रथम दो शुक्लध्यानों का स्वामित्व श्रुतकेवली और अन्तिम दो शुक्लध्यानों का स्वामित्व केवली भगवान् के कहा गया है।' जबकि धवला टीका में पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान का ध्याता चौदह, दश अथवा नौपूर्वो को धारण करने वाला प्रशस्त संहननयुक्त उपशान्तकषाय वीतराग छद्मस्थ माना गया है। चारित्रसार में धवला के ही समर्थन रूप विवरण दिया गया है। आचार्य नेमिचन्द्र ने अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय उपशामक और उपशान्त कषाय रूपचार गुणस्थानों में पहला शुक्लध्यान माना है। ज्ञानार्णव के कर्ता आचार्य शुभचन्द्र ने प्रथम शुक्लध्यान के ध्याता के विषय में स्पष्ट करते हुए कहा है - " जिन महामुनि ने दादशांग शास्त्ररुप महासमुद्र का अवगाहन किया है वही मुनि पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान को ध्यावे।''5 इस प्रकार प्रथम शुक्लध्यान के स्वामियों के विषय में कतिपय भिन्नता दिखाई देती है किन्तु द्धितीय शुक्लध्यान एकत्ववितर्कअवीचार को तो सभी क्षीणकषायगुणस्थान में ही स्वीकार करते हैं। . सयोगकेवली गुणस्थान के अन्तिम अन्तर्महत काल में जब मूनि स्थूलयोगों का निरोध कर सूक्ष्मकाययोग में स्थिर हो जाता है तब तृतीय अर्थात् सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती नामक ध्यान होता है। और अयोग केवली गुणस्थान में योगों के पूर्ण अभाव में ही चौथा शुक्लध्यान समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती होता है। आदिपुराण में छद्मस्थों के उपशान्तमोह और क्षीणमोह के शुक्ल तथा केवलियों के परमशुक्ल ध्यान बतलाया है। जो कि पूर्वोक्त भेदों के अनुरूप ही है। शुक्लध्यान का फल - शुक्लध्यान का मुख्य फल मोक्ष की प्राप्ति है, लेकिन चारों ध्याजों का अलग-अलग जो फल होता है वह इस प्रकार है - . . पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान स्वर्ग एवं मोक्ष के सुखों को देने वाला है। इससे संवर, निर्जरा एवं अमरसुख तो प्राप्त होता ही है। इस ध्यान के दारा मुनि क्षणमात्र में मोहनीय कर्मों का मूल से ही नाश कर देता है। तीन घातियाकर्मों का मूल रूप से ही नाश कर देना एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यान का फल है। . योग का निरोध करना एवं शैलेशी अवस्था के प्राप्त होने पर कर्मों से मुक्त होकर 1: तत्त्वार्थसूत्र, 9/37-8. 2. धवला, 13, पृ. 60. 3. चारित्रसार, पृ. 206. 4. द्रव्यसंग्रह टीका, पृ. 204. 5. ज्ञानार्णव, 42/22. 6. द्रव्यसंग्रह, 48/200 धवला, 13/79. ज्ञानार्णव, 42/25. 7.ज्ञानार्णव, 42/20. 8. वही, 42/29. 175
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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