________________ गोत्र इन तीन कर्मों की स्थिति को घटाकर उनका आयुष्य कर्म की स्थिति से सामञ्जस्य साधते हैं। फिर वे लोक में व्याप्त आत्मप्रदेशों को क्रमश: चार समयों में वापिस समेट लेते हैं। इनका क्रम इस प्रकार होता है - पहले समय में प्रतर, दूसरे समय में कपाट, तीसरे समय में दण्ड और चौथे समय में आत्मप्रदेशों को स्वस्थ - शरीरगत कर लेते हैं। उस समय वे बादरकाययोग में स्थिर होकर बादरमनोयोग और बादरवचनयोग को सूक्ष्म योग में परिवर्तित करते हैं। तदनन्तर सूक्ष्मकाय योग में स्थित हो तृतीय शुक्लध्यान सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती का आरम्भ करते हैं।'' यह ध्यान भी मात्र अन्तर्मुहूर्त के लिए ही किया जाता 4. समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान (व्युपरतक्रियानिवृत्ति) - जिस समय श्वास-प्रश्वास आदि क्रियाओं का भी निरोध हो जाता है और आत्मा के प्रदेशों में . किसी भी प्रकार का कम्पन नहीं होता है तब वह ध्यान समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति ध्यान कहलाता है। क्योंकि यह ध्यान वितर्क रहित और वीचार रहित तो होता ही है तथा इसमें अनिवृत्ति - योग सम्बन्धी क्रिया से रहित भी है। इस अवस्था में शैलेशपना एवं अयोग दशा उपलब्ध हो चुकी होती है। इस अवस्था को प्राप्त होने वाले साधक के मानसिक, वाचिक और कायिक व्यापार समाप्त हो चुके होते हैं। इसको उपलब्ध होने पर साधक को अयोग केवली नाम से अभिहित किया जाता है। इसमें केवली के द्वारा उपान्त समय में बहत्तर कर्मप्रकृतियों का तथा अन्तिम समय में तेरह प्रकृतियों का विनाश कर मोक्ष प्राप्त किया जाता है। आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार अयोग केवली भगवान् का स्वरूप ऐसा होता है - "चौदहवेंगुणस्थान में केवली भगवान् निर्मल, शान्त, निष्कलङ्क, निरामय और जन्ममरण रूप संसार के अनेक दुर्निवार बन्ध के कष्टों से रहित हैं, इनका आत्मा सिद्ध, प्रसिद्ध और निष्पन्न हो जाता है तथा ये कर्ममल से रहित निरंजन, क्रिया रहित, शरीररहित, शुद्ध, निर्विकल्प, अत्यन्त पूर्णता को प्राप्त, अनन्तवीर्य सहित अर्थात् अब अपने स्वरूप से कभी च्युत नहीं होते और आत्मा के दर्शन, ज्ञान की उत्कृष्ट शुद्धता को प्राप्त होते हुए मन, वचन, काय रूप योगों से रहित होने से अयोगी होते हैं। अपनी आत्मा की सिद्धि कर लेने से साधितात्मा, स्वभावस्वरूप, परमेष्ठी एवं उत्कृष्ट प्रभु होते हैं। चौदहवें गुणस्थान में अब लघु पंच स्वरों के उच्चारण काल तक ठहरते हैं। तदनन्तर कर्म बन्ध से रहित हो शुद्धात्मस्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करते हैं।''2 पश्चात् वे भगवान् ऊर्ध्वगमन कर, एक समय में ही कर्म के अवरोध से रहित हो लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाते हैं। उससे आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने के कारण आगे गमन नहीं होता है।' 1. ज्ञानार्णव, 42/38-46. 2.ज्ञानार्णव, 42/55-59. 3. तत्त्वार्थसूत्र, 10/5. 174