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________________ साधक कषायरहित बारहवें गुणस्थान वाला जीव होता है। इस ध्यान का काल अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है। इसके अनन्तर ही केवलज्ञान की उत्पत्ति हो जाती है। 3. सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती - एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यान से समस्त घातिकर्म रुप ईंधन को जलाने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर समस्त वस्तुओं के गुण और पर्याय युगपत् जानने में आ जाते हैं। इसके अनन्तर वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र का वेदन करता हुआ केवलज्ञानी एक मुहूर्त तक अथवा कुछ कम एक पूर्वकोटिकाल तक विहार करता है। कर्मभूमिज मनुष्य की उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि वर्ष की होती है और वह कम-से-कम आठ वर्ष की अवस्था होने पर ही दीक्षा लेकर केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है। ऐसी अवस्था में केवली के इतना दीर्घकाल संभव होता है।' जब केवली भगवान् की आयु अन्तर्मुहूर्त शेष रहती है और वेदनीय, नाम तथा गोत्र की स्थिति भी उतनी ही रहती है, तब सब मनयोग, वचनयोग एवं काययोग को छोड़कर सूक्ष्मकाययोग का आलम्बन लेकर सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान आरम्भ करते हैं। यहाँ क्रिया का तात्पर्य योग से है। ऐसा ध्यान सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ध्यान कहलाता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि यदि केवली की आयु अन्तर्मुहर्त्त है और वेदनीय, नाम और गोत्र की स्थिति अधिक होती है तो वे उनको बराबर करने के लिए समुद्घात करते हैं। इस ध्यान को केवलज्ञान के आश्रय से ही सम्पन्न किया जाता है। इसमें वितर्क अर्थात् श्रुत का आश्रय नहीं लिया जाता तथा यहाँ संक्रान्ति भी नहीं होती है। केवली के द्वारा की जाने वाली समुदघात की प्रक्रिया का जैन सिद्धान्त के ग्रन्थों में विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। यह विवेचन जितना विस्तृत है उतना ही सूक्ष्म भी / ज्ञानार्णव के कर्ता आचार्य शुभचन्द्र ने भी इसका प्रसङ्गोपात्त वर्णन किया है जो निम्नानुसार है - "केवली प्रथम समय में अपने अष्ट आत्मप्रदेशों को मेरु के अष्ट प्रदेशों के मध्यगत करते हुए दण्ड की तरह लम्बे रूप में विस्तीर्ण करते हैं। दितीय समय में उन्हें कपाट की तरह चौड़े रूप में, तृतीय समय में प्रतर की तरह मोटे रूप में और चौथे समय में इन विस्तृत आत्म प्रदेशों के द्वारा समस्त लोक को आपूर्ण - व्याप्त कर लेते हैं। इसी स्थिति में केवली भगवान् के सर्वगत, सर्वज्ञ, सर्वतोमुख, विश्वव्यापक, विभु, भर्त्ता, विश्वमूर्ति एवं महेश्वर ये नाम सार्थक होते हैं। इस प्रकार आत्मप्रदेशों को लोक में फैलाकर ध्यान बल से वेदनीय, नाम और 1. प्रशमरतिप्रकरण, गाथा 271 2. वही, गाथा 273. तथा ज्ञानार्णव, 42/42. 3.षट्खण्डागम, भाग 5., तत्त्वार्थराजवार्तिक, 9/44. योगशास्त्र, 11/8. 173
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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