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________________ षष्ठ अध्याय ध्यान की प्रक्रिया आचार्य उमास्वामी ने ध्यान का लक्षण एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानं किया है इसका अर्थ है अपने चित्त की वृत्ति को सब ओर से रोककर एक ही विषय में स्थिर करना लगाना। इस ध्यान के लक्षण में एक और अग्र ये दो शब्द विशेष विचारणीय हैं। इनमें एक शब्द का अर्थ मुख्य और अग्र शब्द का अर्थ आलम्बन है। मुख्य अर्थात् आलम्बन में चित्त को स्थिर करना ध्यान है और वह मुख्य आलम्बन आत्मा है उस आत्मध्यान की सिद्धि में जो भी साधक-बाधक कारण हैं उनमें साधक कारणों को जुटाना और बाधक कारणों को हटाने को ही ध्यान की प्रक्रिया माना जा सकता है। वे ध्यान के साधक कारण दो प्रकार के हो सकते हैं - बाह्य और आन्तरिक। अत: ध्यान की प्रक्रिया भी बहिरंग और अन्तरंग की अपेक्षा दो प्रकार की हो जाती है। स्थान, आसन, प्राणायाम आदि बाहरी साधन हैं इसलिए इन्हें बहिरंग प्रक्रिया के अन्तर्गत रखा गया है। वैराग्य, तत्त्वविज्ञान आदि अन्तरंग साधन हैं अत: इन्हें अन्तरंग प्रक्रिया में परिगणित किया गया है। ध्यान के साधक कारणों के साथ ध्यान के बाधक कारणों को भी बतलाया गया है। जिनका परिहार करना ध्यान की सिद्धि के लिए अनिवार्य है। वे बाधक कारण निम्न हैं - चित्त की चपलता, विपरीत ज्ञान, प्रमाद, आलस्य, विभ्रम, आर्त्त-रौद्रध्यान को उत्पन्न करने वाला स्थान आदि। .. ध्यान किस प्रकार होता है अर्थात् ध्यान प्राप्ति के कौन-कौन कारण होते हैं? यह भारतीय दर्शन में महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। जिसका समाधान प्रत्येक चिन्तन ने किया है। जैन चिन्तकों द्वारा किया गया समाधान आगमों में उपलब्ध है अत: प्रकृत में ध्यान प्राप्ति के प्रमुख कारणों का उल्लेख करना आवश्यक है। तत्त्वानुशासन, ज्ञानार्णव आदि में कहा गया है किं परिग्रह-त्याग, कषाय-निग्रह, व्रतधारण, इन्द्रिय और मनोविजय करने से ध्यान प्राप्त होता है। गुरूपदेश, तत्त्वों का श्रद्धान करना, निरन्तर अभ्यास और मन की स्थिरता भी ध्यान की प्राप्ति में प्रमुख कारण हैं। कहा भी है - "वैराग्य, तत्त्वों का ज्ञान, परिग्रहत्याग, साम्यभाव और परीषहजय ये पाँच ध्यान के कारण हैं।''3 ज्ञानार्णव में इन सभी ध्यान के कारणों का विवेचन यथास्थान किया गया है। सर्वप्रथम वैराग्य को उत्पन्न करने के लिए बारह भावनाओं का सविस्तार व्याख्यान किया 1. प्रबोधसार, 192. 2. तत्त्वानुशासन, 75. 3. वृहद्रव्य संग्रह, गाथा 57 की टीका. 177
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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