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________________ 4. शुक्लध्यान - शुक्लध्यान, योग की वह सर्वोत्तम अवस्था है, जिसमें चित्त की एकाग्रता और निरोध पूरी तरह से सम्पन्न हो जाता है। साधक जिस लक्ष्य को लेकर योगमार्ग की प्रवृत्ति को अपनाता है वह इस ध्यान के प्राप्त हो जाने से पूर्णता को प्राप्त होता है। यही वह दशा होती है जिससे सीधे मोक्ष प्राप्त किया जाता है। शुक्लध्यान का स्वरूप - जैन सिद्धान्त एवं योग परम्परा दोनों ही दृष्टियों में शुक्लध्यान का विस्तृत विवेचन हुआ है और मुख्य बात यह है कि दोनों में ही स्वरूपगत कोई भिन्नता नहीं है। विभिन्न आचार्यों द्वारा निरूपित कतिपय परिभाषाओं पर दृष्टिपात् कर लेना उचित होगा, जो कि निम्नानुसार हैं - "शुचं क्लमयतीति शुक्लम्" ध्यानशतक की इस निरुक्ति के अनुसार जो ध्यान शोक आदि दोषों को दूर करने वाला है वह शुक्लध्यान है। अर्थात् आत्मा की अत्यन्त विशुद्ध अवस्था को शुक्लध्यान कहते हैं।' समवायांग के अनुसार - ''श्रुत के आधार से मन की आत्यन्तिक स्थिरता एवं योग का निरोध शुक्लध्यान है।''2 आचार्य अकलङ्कदेव के अनुसार - "जिस प्रकार से मैल के धुल जाने पर वस्त्र साफ हो जाता है, उसी प्रकार निर्मल गुणों से युक्त आत्मा की परिणति भी शुक्ल है।'' इस तरह किञ्चित् शब्दभेद के साथ अधिकांश परिभाषाएँ उपलब्ध होती हैं किन्तु इन सभी में जिस समानता के दर्शन होते हैं वह है कषायों का अभाव। अर्थात् कषायों के अभाव का कथन लगभग सभी आचार्यों का ध्येय है। यथा - . "..... अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में जो उदासीन तत्त्वज्ञान होता है वह दोनों प्रकार के मल के नाश होने के कारण शुक्लध्यान है और वह माणिक्यशिखा की तरह निर्मल और निष्कम्प रहता है।'' आचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में शुक्लध्यान की शुक्लता पर प्रश्न करते हुए स्पष्ट किया है कि - इसकी शुक्लता कषायों के अभाव के कारण ही है। इन्हीं परम्परित अभिप्रायों को सुरक्षित एवं संरक्षित करते हुए जैन योग के मूर्धन्य विशेषज्ञ आचार्य शुभचन्द्र ने भी कहा है - "जो निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है और ध्यान की 1. ध्यानशतक,1 3. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, 9/28/4/627/31. 5. धवला, 13/5/4/26/77/9. 2. समवायांग, 4. 4. तत्त्वानुशासन, 221, 222. 170
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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