________________ धारणा से रहित है अर्थात् मैं इसका ध्यान करूँ, इस इच्छा से रहित है, वह शुक्ल ध्यान है।"1 शुक्लध्यान के भेद - साधक धर्म्यध्यान का अभ्यास करते-करते शुक्लध्यान की अवस्था को प्राप्त होता है। धर्म्यध्यान में उसके जो कर्म व कषाय शेष रह जाते हैं वह शुक्लध्यान के दारा नष्ट हो जाते हैं। शुक्लध्यान को परम समाधि की अवस्था भी कहा जाता है। इसके चार भेद बतलाये गए हैं, इन्हें चार चरणों के रूप में भी देखा जाता है। वे ये हैं - 1. पृथक्त्ववितर्क सवीचार, 2. एकत्ववितर्क अवीचार, * 3. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती, और 4. व्युपरतक्रियानिवर्ती। - हरिवंशपुराण के अनुसार शुक्लध्यान के ये दो भेद भी होते हैं - शुक्लध्यान एवं परमशुक्लध्यान / इसके अनुसार उपर्युक्त चारों ध्यानों को दोनों में विभक्त किया जाता है। अर्थात् पृथक्त्ववितर्क वीचार और एकत्ववितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान में तथा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और व्युपरतक्रियानिवर्ती परमशुक्लध्यान में परिगणित हैं।' हरिवंशपुराणकार ने जिन दो भेदों का कथन किया है उन्हीं दो भेदों का उल्लेख चामुण्डराय के चारित्रसार में भी देखने के लिए मिलता है। आचार्य हेमचन्द्र ने भी शुक्लध्यान के इन्हीं भेदों का कथन किया है। किन्तु उन्होंने चौथे शुक्लध्यान का नाम व्युपरतक्रियानिवर्ती के स्थान पर आसन्नक्रियाअप्रतिपाती कहा है / यद्यपि इसमें तत्त्वगत कोई भेद नहीं है, मात्र पर्यायवाची रूप से शब्द-भेद लक्षित होता है। 1. पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान - पृथक्त्ववितर्कवीचार नामक ध्यान शुक्लध्यान का प्रथम चरण है। इस ध्यान में पृथक् - पृथक् रूप से वितर्क अर्थात् श्रुत का वीचार अर्थात् परिवर्तन होता है। इसलिए इसे सवितर्क एवं सवीचार ध्यान कहा गया है। यह ध्यान मन, वचन और काय इन तीन योगों वाले मुनियों के होता है। किसी एक वस्तु में उत्पाद-स्थिति और व्यय आदि पर्यायों का चिन्तन श्रुत का आधार लेकर करना भी पृथक्त्ववितर्कवीचार शुक्लध्यान में होता है। अर्थ, व्यंजन और योगों के संक्रमण का नाम 1. ज्ञानार्णव, 42/4., 42/9-11. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 9/39 3. हरिवंशपुराण, 56/53-4. 4. चारित्रसार, 203/4. 5. योगशास्त्र, 11/5. 171