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________________ 4. रूपातीत ध्यान - _ 'रूपेण अतीतं रूपैर्बिना वा यद्ध्यानं तद्रूपातीतं ध्यानम्' रूप से अतीत ध्यान रूपातीत ध्यान है। रूप का अर्थ स्पर्श, रस, गन्ध व वर्णमय दृश्यमान पुदल पदार्थ से है। उससे अतीत यानि रहित जो शुद्ध चैतन्य ज्ञानानन्द स्वरूप शुद्धात्मा है उसका ध्यान रूपातीत ध्यान है। अर्थात् आत्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित निरंजन स्वरूप है उसका ध्यान रूपातीत ध्यान है।' इस ध्यान में योगी चिदानन्दमय विशुद्ध, अमूर्त, परमाक्षर आत्मा को आत्मा से ही ध्याता है। रुपातीत ध्यान परमात्मा का शुद्ध रूप है, इसमें योगी मुनि अपनी आत्मा को ही परमात्मा समझकर स्मरण करता है। परमध्यानी सिद्ध परमात्मा के ध्यान का अभ्यास करके शक्ति की अपेक्षा से अपने आपको भी उनके समान जान-मानकर अपने आपको उनके समान ही व्यक्त रूप से करने के लिए उनमें लीन होता है, तथा अपने कर्मों का नाश करके व्यक्त रूप परमेष्ठी हो जाता है। इस ध्यान में ध्याता, ध्यान व ध्येय की एकता हो जाती है। यह ध्यान निरालम्ब ध्यान के अन्तर्गत आता है, क्योंकि इसमें न तो किसी प्रकार का मन्त्र जाप होता है और न किसी का अवलम्बन लिया जाता है। प्रारम्भ में साधक को सालम्बन ध्यान को करने के लिए कहा गया है, क्योंकि इस ध्यान में एक स्थूल अवलम्बन होता है, जिससे साधक का मन एकाग्र होकर चिन्तन में समर्थ हो पाता है। जब साधक इस ध्यान में परिपक्व हो जाता है, तब निरालम्बन ध्यान की योग्यता उसके आ जाती है, जिससे रूपातीत ध्यान का चिन्तन कर सकता है। अत: आचार्यों ने पहले सावलम्बन ध्यान का अभ्यास करने के लिए कहा है, यह सध जाए तो उसे छोड़कर निरालम्ब के अभ्यास का निर्देश दिया है। स्थूल से सूक्ष्म, सविकल्प से निर्विकल्प और सावलम्ब से निरावलम्ब की ओर जाया जाता है / रूपातीत ध्यान के अन्तर्गत सिद्ध भगवान को आधार मानकर चिन्तनात्मक एकाग्रता साधी जाती है। ज्ञानार्णव के 39 वें सर्ग में रूपातीत ध्यान का विशेष विवरण प्रस्तुत किया है। वहाँ कहा गया है - 'जो योगी वीतरागी हो वीतराग भगवान् का स्मरण करता है वह स्वयं वीतरागी हो मुक्त हो जाता है।'' धर्म्यध्यान के स्वामी - जैसा कि आगम में उल्लेख किया गया है कि धर्म्यध्यान चार प्रकार का है और 1. द्रव्यसंग्रह, 48/201. ज्ञानार्णव, 39/16. 2. योगशास्त्र, 10/3-4. ज्ञानसार, 37 3. ज्ञानार्णव, 39/13. 168
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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