________________ - 'रुपयुक्त.तीर्थंकर आदि इष्टदेव का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है। अथवा आचार्य शुभचन्द्र के शब्दों में 'आठ महाप्रातिहार्यों से घिरे हुए अरहन्त भगवान का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान कहलाता है।'' इसे ही स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं - 'अर्हत् पदानुरूप गरिमामय सर्वज्ञ, परमेश्वर, देवेन्द्र, चन्द्र, सूर्य आदि से समन्वित परिषद में विद्यमान - स्वयंभू - आत्मबल दारा सिद्धि प्राप्त, समग्र अतिशयपूर्ण, सर्वलक्षण पूर्ण, समस्त प्राणियों के लिए हितकर, शील रूप शैल शिखर पर विराजित, सप्तधातु रहित, मोक्ष लक्ष्मी दारा सकटाक्ष दर्शित - सत्वर मोक्षगामी, अपरिमित महिमा के आधार, सयोगी केवली अवस्था को प्राप्त, अचिन्त्य चरित्र-उत्तम चरित्रशील, गणधरादि मुनिगण दारा समुपासित विविध नयों द्वारा निर्णीत समग्र तत्त्व, समस्त जगत के बन्धु-श्रेयस्कर, इन्द्रियविजेता, विषयशत्रु विनाशक, रागात्मक विस्तार का ध्वंस करने वाले, भवाग्नि को शान्त करने-बुझाने हेतु मेघ, दिव्यरूप युक्त, धैर्यशील, विशुद्ध ज्ञानचक्षुमय, देवों और योगिवर्यों द्वारा कल्पनातीत आत्म वैभव के अधिनेता, मिथ्यात्वमय मत रूप पर्वत को स्यादवाद रूपी वज्र द्वारा विनिर्घात करने वाले, ज्ञान रूपी अमृत के स्रोत से तीनों लोकों को पवित्र करने वाले, असंख्य गुणरत्नों से परिपूर्ण, महासागर, देववन्द्य, स्वयंबुद्ध, आद्य धर्मचक्रवर्ती, तीर्थंकर ऋषभनाथ का ध्यान करे।...... आदि / इस ध्यान के फल का निदर्शन करते हुए आचार्य कहते हैं कि - 'उपर्युक्त सर्वज्ञ देव का ध्यान करने वाला ध्यानी अन्य शरण से रहित हो, साक्षात् उसमें ही संलीन है मन जिसका ऐसा हो, तन्मयता को पाकर उसी स्वरूप को प्राप्त होता है।' .. यहाँ यह अवश्यमेव ध्यातव्य है कि साधक के लिए वीतरागी देव का ही चिन्तन या ध्यान करना चाहिए, तभी वह वीतरागी हो सकता है। इसी कारण वह असर्वज्ञ होने पर भी अपने आप सर्वज्ञ स्वरूप देखने वाला हो जाता है। अन्यथा रागी का ध्यान करने से स्वयं रागात्मक हो जाएगा। - इस तरह रूपस्थ ध्यान का अभ्यासी साधक संसार में दुर्लभ समस्त वस्तुओं को प्राप्त करने के साथ मोक्ष पद को भी सहजता से प्राप्त कर सकता है। इसी तरह योगशास्त्र, वसुनन्दिश्रावकाचार, गुणभद्रश्रावकाचार, शास्त्रसारसमुच्चय, तत्त्वानुशासन, द्रव्यसंग्रह आदि ग्रन्थों में भी रूपस्थ ध्यान का विवेचन किया गया है। सभी में प्रमुख रूप से चिद्रूपता - स्पर्श, रस, गन्ध व वर्ण से रहित स्वरूप की साम्यता स्पष्ट अवभासित होती है। 1. योगशास्त्र, 9/7. 3. ज्ञानार्णव, 39/1-31. 5. वही, 39/42. 2. ज्ञानार्णव, 39/23. 4. वही, 39/32. 6. वही, 39/33. 167