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________________ केवली स्वाहा', 'ॐ हीं श्रीं अहँ नम:', 'नम: सर्वसिद्धेभ्यः', 'ॐ जोग्गे मग्गे तच्चे भूदे भव्वे भविस्से अक्खे पक्खे जिणपारिस्से स्वाहा', 'ॐ हीं स्वहँ णमो णमोऽहंताणं हीं नम:', एवं णमो णाणस्स', 'णमो दंसणस्स', 'णमो चरित्तस्स', 'णमो तवस्स', 'एसो पंच णमोक्कारो', 'सव्वपावप्पणासणो', 'मंगलाणं च सव्वेसिं पढमं हवइ मंगलं' इत्यादि।' इस प्रकार आचार्य शुभचन्द्र ने पदस्थध्यान के अन्तर्गत अन्य अनेक मन्त्रों के ध्यान करने की विधियाँ एवं उनके स्वरूप के साथ फल का वर्णन किया है। जिससे ध्यान करने वाले को किञ्चित् भी संदेह नहीं रह जाता है। इसी तरह आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र में भी इनका विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। जिसे देखकर प्रतीत होता है कि उनके समय में मन्त्रमूलक आराधना का काफी प्रसार रहा है। यही कारण है कि इन दोनों आचार्यों ने अपने अनुकूल उस विषय सामग्री का संचय किया है / यद्यपि इस तरह प्ररूपित मन्त्र विषयक ध्यान साधना एक जटिल प्राणायाम की प्रक्रिया से सम्पन्न होती है और कहीं - कहीं तो वह हठयोग के त्राटक आदि रूपों में भी जुड़ जाती है। जिससे उसकी साधना कृच्छ्रतम हो जाती है। दोनों की विषय सामग्री के साम्य का प्रमुख कारण दोनों के काल का निकटवर्ती होना ही। इसी कारण से यह कहना सत्य एवं तथ्यपूर्ण है कि ज्ञानार्णव का प्रभाव आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर यथेष्ट परिलक्षित होता है। पदस्थ ध्यान में चित्त को एकाग्र करने के लिए पदों अर्थात् मन्त्रों एवं बीजाक्षरों का सहारा लिया जाता है जो मुक्ति की कामना करने वाले हैं उनके लिए मन्त्र रूपी पदों का अभ्यास करने के लिए कहा गया है, इन मन्त्रों के अभ्यास से साधक के समस्त कर्मों का क्षय हो जाता है एवं लौकिक प्रयोजनों की सिद्धि के साथ-साथ मोक्षपद की प्राप्ति भी सरल हो जाती है। 3.रूपस्थध्यान - 'रूप' शब्द के अनेक अर्थ हैं। सामान्यत: प्रचलित अर्थ है चक्षु इन्द्रिय द्वारा ग्राह्य विषय। अन्यत्र इसका अर्थ होता है स्वभाव, यथा द्रव्य रूप या पुढल रूप आदि। किन्तु यहाँ ध्यान का प्रसङ्ग होने से इसका अर्थ सर्वथा भिन्न ही होता है। जैसा कि प्रवचनसार में कहा गया है - 'अन्तरंग शुद्धात्मानुभूति की द्योतक निर्ग्रन्थ एवं निर्विकार साधुओं की वीतराग मुद्रा को रूप कहा गया है। इसीलिए जहाँ भी रूपस्थ ध्यान का विवेचन किया गया है वहाँ रूप से तात्पर्य आकृति विशेष से लिया गया है। उपर्युक्त सन्दर्भ के अनुसार रूपस्थ ध्यान की परिभाषा निम्नानुसार हो सकती है 1. ज्ञानार्णव, 38/48-113. 1. ज्ञानार्णव, 38/116. 2. प्रवचनसार, ता. वृ. 203/276. 166
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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