________________ धारणाओं का विश्लेषण किया है वह उनके पूर्ववर्ती आचार्य हरिभद्र के योग विषयक , किसी भी शास्त्र में उपलब्ध नहीं होता। फिर इनका भी मूल स्रोत कहाँ है, इस विषय में निश्चित रूप से कुछ कह पाना शक्य नहीं है। इतना अवश्य है कि हठयोग के ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में मिलता-जुलता वर्णन अवश्य है, किन्तु उसकी विवेचना एवं अभिप्राय स्पष्टत: भिन्न है। फिर भी यदि वहाँ से इसे संगृहीत किया गया है तो उसमें श्रमणसंस्कृति के तत्त्वों का समावेश अवश्य हो जाने से संस्कारित हो गया है। जिससे अब दोनों को एक रूप में पहचान पाना संभव नहीं है।' घेरण्डसंहिता में भी मुद्राओं के प्रसङ्ग में पाँच धारणाओं का विवेचन हुआ है। उनके नाम क्रमश: पार्थिवी, आम्भसी, आग्नेयी, वायवी तथा आकाशी ही हैं। इन धारणाओं का घेरण्ड ऋषि ने अत्यधिक महत्त्व बताया है। वे लिखते हैं - इन धारणाओं के सिद्ध हो जाने पर वह कौन सा कार्य है, जो सिद्ध नहीं होता ? इन धारणाओं के सिद्ध हो जाने पर योगी की गति मन के सदृश हो जाती है। वह खेचरत्व - आकाशगमन की शक्ति से भी सम्पन्न हो / जाता है। आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र ब्दारा निरूपित धारणाओं के साथ घेरण्डसंहिता में वर्णित धारणाओं की तुलना करें तो यह प्रतीत होता है कि उक्त दोनों आचार्यों ने जो धारणाओं का विवेचन किया है, वह बड़ा विशद और सारगर्भित है। पार्थिवी, आग्नेयी, वायव्य तथा वारुणीपिण्डों या प्रतीकों को ध्यान का विषय बनाकर इन्हें देह में विभिन्न कमल आदि प्रतीकों के साथ जोड़कर कर्मनाश की जो प्रक्रिया बतलाई गई है वह न केवल रोचक है अपितु बहुत मार्मिक भी है। कितनी सुन्दर कल्पना है - औंधे मुंह वाले हृदयस्थ कमल पर स्थापित आठ कर्मों को नाभि कमल में स्थित महामन्त्र से निकलने वाली अग्नि की प्रचण्ड ज्वालाएँ उस कमल तथा उन कर्मों को दग्ध कर रही हैं। इतना ही नहीं बाहर परिकल्पित अग्निमण्डल से निकलने वाली अग्नि की भीषण ज्वालाएँ भी आठ कर्मों, कमल और शरीर को दग्ध करती हैं। सब जलकर राख बन जाते हैं। आग्नेयी धारणा का यह कितना सुन्दर और प्रभावक रूप है। कर्मों ने राख का रूप तो ले लिया किन्तु वह भी पिण्ड रूप में कहीं पड़ी है। ऐसा क्यों रहे ? अत: वायवीधारणा में वह सारी राख गगन मण्डल में बिखेरढीजाती है तथा वारुणी धारणा में इसे धो डाला जाता है। कर्मों का अवशेष भी नहीं बचता। पिण्डस्थ ध्यान के साथ जुड़ी यह धारणात्मक चिन्तन प्रणाली साधक को कर्मों के अपचय की दिशा में प्रेरित करती है। जिस समय योगी इन धारणाओं में की गई प्रतीक कल्पनाओं के साथ अपने को जोड़ लेता है उस समय उसके चित्त से सभी सांसारिक स्थितियाँ 1. घेरण्डसंहिता, 3/68. 2. वही, 3/69 160