________________ चमक रही है एवं इन्द्रधनुष दिखाई दे रहा है। बीच-बीच में होने वाली गर्जनाओं से दिशाएँ कम्पित हो रही हैं एवं उन बादलों से निकलने वाली जल की अमृत के समान स्वच्छ धाराओं से आकाश व्याप्त हो गया है। ये जल की धारायें हमारे ऊपर गिरती हैं और राख के ढेर की छाप को बिल्कुल धोकर स्वच्छ कर दिया है और मेरी आत्मा स्फटिकमणि के समान स्वच्छ एवं निर्मल हो गई है, ऐसा चिन्तन करना ही वारुणी धारणा है।' तत्त्वरूपवतीधारणा - इस धारणा में साधक ऐसा चिन्तन करता है कि मेरी आत्मा सप्तधातु से रहित और पूर्ण चन्द्रमा के समान उज्ज्वल एवं निर्मल है। मेरी आत्मा सर्वज्ञ है, अतिशय युक्त सिंहासन पर आरूढ़ है और इन्द्र, धरणेन्द्र, दानवेन्द्र, नरेन्द्र आदि से पूजित है। मेरे समस्त आठों कर्म नष्ट हो गये हैं और कर्मरहित मैं पुरुषाकार हूँ एवं ज्ञानमात्र ही मेरा शरीर है। ऐसा चिन्तन करना तत्त्वरूपवती धारणा है। __ इस प्रकार पाँचों धारणाओं से युक्त पिण्डस्थ ध्यान का अभ्यास करने वाले ध्याता को मन्त्र, माया, शक्ति, जादू आदि से कोई क्षति नहीं होती। प्रथम धारणा से साधक का - मन स्थिर होता है, दूसरी धारणा से शरीरकर्म को नष्ट करता है, तीसरी धारणा शरीर और कर्म के सम्बन्धों को भिन्न देखने में समर्थ बनाती है, चौथी धारणा से शेष कर्म को नष्ट करता है और प्राँचवी धारणा से शरीर एवं कर्म से रहित शुद्ध आत्मा को देखता है। इस प्रकार से वह इस ध्यान के अभ्यास से मन एवं चित्त को एकाग्र करके शुक्लध्यान में पहुँचने की स्थिति प्राप्त कर लेता है। - इन धारणाओं का वर्णन करने के पश्चात् आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है कि - जो योगी इस प्रकार इन धारणाओं के द्वारा अनवरत चिन्तन करता हुआ पिण्डस्थ ध्यान को साध लेता है वह अचिरकाल में ही आनन्द को प्राप्त कर लेता है, जो अन्य साधनों से भी प्राप्त होना कठिन है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में भी पिण्डस्थध्यान के अन्तर्गत ध्येय की पाँच धारणाओं का वर्णन किया है, जो कि ज्ञानार्णव के सदृश ही है। दोनों में कहीं कोई अन्तर है तो वह नाम मात्र का ही है। तीसरी धारणा का नाम आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार श्वसन है तो आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार मारुती। इसी प्रकार पाँचवी धारणा का नाम ज्ञानार्णव में तत्त्वरूपवती है तो योगशास्त्र में तत्त्वभू / दोनों के विवेचन में कोई तात्त्विक अन्तर दृष्टिगोचर नहीं होता। आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र ने पिण्डस्थ ध्यान के प्रकरण में जो इन 1. ज्ञानार्णव, 37/25-27. 2. वही, 37/28-30. 3. वही, 37/31. 4. ज्ञानार्णव, 37/4-30. योगशास्त्र, 7/9-25. 159