________________ स्फुलिंग निकल रहे हैं। ये पंक्तिबद्ध चिनगारियाँ क्रमश: शनै:-शनै: अग्नि की ज्वाला के रूप में परिणत हो रही हैं और फिर वह अग्नि प्रचण्ड रूप धारणकर लेती है जिससे हृदयस्थ कमल दग्ध हो जाता है। जिस कर्म चक्र को रेफ की अग्नि जलाती है वह हृदयस्थ कमल अधोमुख वाला और आठ पत्रों का होता है। इसके आठों पत्रों पर क्रमश: ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय नामक कर्म आत्मा को घेरे हुए हैं। इस कमल के आठों दलों को कुम्भक पवन के बल से खोलकर फैलाकर उक्त "हूँ''बीजाक्षर के रेफ से उत्पन्न हुई प्रबल अग्नि से भस्म किया जाता है। यह अग्नि मस्तक तक पहुँच जाती है और वहाँ से अग्नि की एक लकीर बाई ओर नीचे और दूसरी दाईं ओर नीचे की तरफ उस साधक के आसन तक पहुँच जाती है तथा आसन के आधार पर चलकर दूसरे से मिल जाती है और इस प्रकार से एक त्रिकोण की आकृति निर्मित हो जाती है। वह अग्निमण्डल "ररररर'' ऐसे बीज अक्षरों से व्याप्त है। तथा उसके अन्त में स्वस्तिक चिह्न है। यह अग्नि धूम से रहित एवं अत्यधिक देदीप्यमान है और अपनी ज्वालाओं के समूह से नाभि में स्थित कमल और शरीर को भस्म करके जलाने योग्य पदार्थ के न रहने पर अपने आप शान्त हो जाती है।'' __ मारुतीधारणा - आग्नेयी धारणा व्दारा शरीर और द्रव्यकर्म और भावकर्म की समूल राख ढेरी हो गई तो उसको भी किस प्रकार से अपने से पृथक् करे। इसलिए साधक वायु धारणा का चिन्तवन करता है। वह विचारता है कि आकाश में एक प्रचण्ड वायु उठी है। वह इतनी वेगवान् है कि मेरु पर्वत को भी कम्पित कर रही है और देवों की सेना के समूहों को चलायमान कर रही है एवं मेघों के समूह का विघटन करती हुई तेजी से बह रही है। उस वायु ने सागर को भी क्षुभित कर दिया है, धीरे-धीरे वह वायु तीव्र गति से दसों दिशाओं में फैल रही है, पृथ्वीतल को विदीर्ण करके भीतर प्रवेश कर रही है, और आग्नेयी धारणा व्दारा भस्म हई राख को संचित करके अपने वेग से उड़ाकर ले जा रही है, यहाँ तक कि उसने क्षणमात्र में ही विशाल भस्म राशि को उड़ा दिया है। अब मात्र आत्मा ही रह जाती है और यह वायुधीरे-धीरे अपने आप शान्त हो जाती है यही चिन्तन करना मारुती धारणा है। वारुणीधारणा - मारुतीधारणा से साधक की भस्म उड़ जाती है किन्तु छाया रह जाती है उसके लिए वह वारुणी धारणा का चिन्तन करता है। वह सोचता है कि आकाश काले-काले बादलों से आच्छादित है एवं चारों ओर घनघोर घटाएँ घिरी हुई हैं, बिजली 1. ज्ञानार्णव, 37/10-17. 2. वही, 37/20-23 158