________________ विस्फुरित होते हुए एवं अष्ट महाप्रातिहार्यों से परिवृत जो निजरूप है उसका ध्यान पिण्डस्थ ध्यान है।' ज्ञानार्णव में इस ध्यान का सुविस्तृत वर्णन हुआ है। इसका निर्देश करते हुए इसके पाँच अवान्तर भेदों का भी कथन किया गया है। जिनके नाम हैं - 1. पार्थिवीधारणा, 2. आग्नेयीधारणा, 3. श्वसनाधारणा, 4. वारुणीधारणा तथा 5. तत्त्वरूपवतीधारणा। आचार्य हेमचन्द्र ने भी अपने योगशास्त्र में इन्हीं पाँचों धारणाओं का विवेचन किया है।' ___ तत्त्वानुशासन में भी इन पाँच में से तीन धारणाओं का विवेचन मिलता है। वहाँ श्वसना, आग्नेयी और वारुणी के ही नामान्तर मारुती, तेजसी और आप्या उपलब्ध होते हैं। इनके विवेचनों का गहन अध्ययन करने से प्रतीत होता है कि आचार्य शुभचन्द्र ने संभवत: तत्त्वानुशासन से ही इन धारणाओं को विस्तार दिया है। वहाँ की तीन धारणाओं में पार्थिवी और तत्त्वरूपवती इन दो धारणाओं को मिलाकर अपने चिन्तन और अनुभव को सम्यक् अभिव्यक्ति प्रदान की है। ___ पार्थिवीधारणा - किसी भी आसन से बैठकर साधक पार्थिवी धारणा का चिन्तन कर सकता है। वह मेरुदण्ड को सीधा करके नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि को जमाकर ध्यान करता है कि मध्यलोक के बराबर नि:शब्द कल्लोल रहित तथा हार और बर्फ के समान सफेद समुद्र है, उसमें जम्बूदीप के बराबर एक लाख योजन वाला तथा हजार पंखुड़ी वाला कमल है, जो सोने के समान पीला है और उसके मध्य में केशर है जो बहुत अधिक मात्रा में सुशोभित एवं सुरभित हो रही है। उन केशरों में स्फुरायमान करने वाली देदीप्यमान प्रभा से युक्त सुवर्णाचल के समान एक ऊँची कर्णिका है, उस कर्णिका पर चन्द्रमा के समान श्वेत रंग का एक ऊँचा सिंहासन है और उस सिंहासन पर मेरी विराजमान है। साथ-ही-साथ यह भी विचार करे कि मेरी आत्मा रागद्वेषादि से रहित है और समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ है। इन बड़ी वस्तुओं का ध्यान करने के बाद सूक्ष्म वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित करने से समस्त चिन्ताओं का निरोध हो जाता है। आग्नेयीधारणा - पार्थिवीधारणा के पश्चात् साधक आग्नेयी धारणा की साधना करता है। इस धारणा में साधक ऐसा चिन्तन करता है कि 'मेरे नाभिमण्डल में सोलह पांखुड़ियों से सुशोभित एक मनोहर कमल है। जिन पर क्रमश: अ, आ, इ, ई इत्यादि सोलह बीजाक्षर अंकित हैं। उस कमल की कर्णिका पर "ह" महामन्त्र लिखा हुआ है। इस महामन्त्र के हैं के रेफ से धीरे-धीरे धुआँ की शिखा निकल रही है। उसके पश्चात् अग्नि के मा 1. वसुनन्दिश्रावकाचार, 459. 2. ज्ञानार्णव, 37/3. 3. योगशास्त्र, 7/9. 1. तत्त्वानुशासन, 183. 5. ज्ञानार्णव, 37/4-9. योगशास्त्र 7/10-12 157