________________ हट जाती हैं। तात्त्विक दृष्टि से उस समय जो योगी का ध्यान मूलक अध्यवसाय चलता है उससे कर्म शीघ्र ही झड़ने लगते हैं। अग्नि जिस प्रकार घास-पात काष्ठ आदि को जला देती है उसी प्रकार ध्यान की तेजोमय अग्नि कर्मों को दग्ध कर डालती है। कर्मों का अस्तित्व वासनागत भी क्यों रह जाय ? इसिलए जले हुए कर्मों की राख तक को उड़ाकर प्रक्षालित कर हटा देने की जो परिकल्पना इनमें है वह नि:संदेह बड़ीसुन्दर और विचित्र है। ऐसा प्रतीत होता है कि इन आचार्यों ने हठयोग में वर्णित धारणाओं को अपने ज्ञान तथा उर्वर मस्तिष्क दारा यह नया रूप दिया है। कर्म निर्जरणात्मक आध्यात्मिक उद्यम को इस नूतन परिवेश में उपस्थापित कर आचार्य शुभचन्द्र और आचार्य हेमचन्द्र ने योग को एक नई दिशा प्रदान की है। 2. पदस्थध्यान - "पद्यते गम्यते विज्ञायते अर्थो येन तत्पदं पदे तिष्ठतीति पदस्थ:' / अर्थात् जिसके द्वारा अर्थ का ज्ञान हो वह पद है। सु-मि आदि विभक्तियाँ जिसके अन्त में हों उसे भी पद कहते हैं, जो ध्यान उसमें स्थित हो अर्थात् पद सम्बन्धी ध्यान पदस्थ ध्यान है। "पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं" अर्थात् मन्त्र वाक्यों में जो स्थित है वह पदस्थध्यान है। इस ध्यान का मुख्य आलम्बन शब्द है। इस ध्यान के द्वारा साधक अपने को एक ही केन्द्रबिन्दु पर केन्द्रित करते हुए मन को अन्य विषयों से पराभूत कर लेता है और केवल सूक्ष्म वस्तु का ही चिन्तन करता है। ज्ञानार्णव में कहा गया है कि 'पवित्र पदों का आलम्बन लेकर जो अनुष्ठान या चिन्तवन किया जाता है, वह पदस्थ ध्यान है।' यही बात योगशास्त्र में भी कही गई है - ‘एक अक्षर आदि को लेकर अनेक प्रकार के पंच परमेष्ठी वाचक मन्त्र पदों का उच्चारण जिस ध्यान में किया जाता है वह पदस्थ ध्यान कहलाता है।' पदस्थ ध्यान करने वाला योगी सबसे पहले वर्णमातृका का ध्यान करता है क्योंकि वर्णमाला सब मन्त्रों की जननी होने के कारण वर्णमातृका' कहलाती है। अनादि सिद्धान्त में जो वर्णमातृका अर्थात् अकारादि स्वर और ककारादि व्यञ्जन हैं, उनसे ही शब्दों की उत्पत्ति हुई है। पदस्थ ध्यान को बीजाक्षर एवं पदों के रूप में दो प्रकार से सिद्ध किया जा * सकता है - 1. अक्षरध्यान - इसके अन्तर्गत नाभिकमल, हृदयकमल और मुखकमल से 1. द्रव्यसंग्रह, टीका, 48/205 2. ज्ञानार्णव, 38/1. 3. योगशास्त्र, 8/1. 4. वसुनन्दी श्रावकाचार, 464.. 161