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________________ ध्यान के तीन भेद होते हैं-पुण्याशय या शुभापयोग व इसके विपरीत पापाशय या अशुभोपयोग - और इन दोनों से रहित शुद्धाशय या शुद्धोपयोग / जीवों के पापरूप आशय के कारण मोह, मिथ्यात्व, कषाय और तत्त्वविभ्रम से अप्रशस्तध्यान होता है। कषाय के क्रोध, मान, माया,लोभ ये चार भेद पाप के आशय जिनसे निरन्तर अशुभध्यान होता रहता है। अशुभध्यान के फलस्वरूप नारकी, तिर्यञ्च और कुमानसों में उत्पन्न होकर संसार में परिभ्रमण करता हुआ उनके दुःखों को भोगता है और शुद्धध्यान के प्रभाव से केवलज्ञान को उत्पन्न करके सकल परमात्मा होकर मुक्ति को प्राप्त करता है। इन्हें ही शुभ, अशुभ और शुद्ध ध्यान भी कहते हैं। इन तीनों ध्यानों के फल में शुभध्यान से स्वर्गीय सुख की प्राप्ति के साथ परम्परा से मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। ध्यान के विविध भेद नामक पाँचवे अध्याय में ध्यान के प्रशस्त और अप्रशस्त भेद हैं। अप्रशस्त के दो भेद आर्त और रौद्रध्यान संसार के कारण होने से त्याज्य हैं / प्रशस्त के दो भेद धर्म्य और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण होने से उपादेय हैं। ध्यानों के भेद-प्रभेदों का विस्तार से वर्णन किया गया है। प्रत्येक ध्यान का स्वरूप, अन्तर-बाह्य लक्षण, लेश्या, स्वामी, फल आदि का विवेचन किया गया है। छठवें अध्याय में ध्यान की अन्तरंग प्रक्रिया के अंतर्गत बारह भावना, कषायनिग्रह, इन्द्रियविजय, रागद्वेष निषेध, साम्यभाव की महिमा आदि विषयों का विवेचन किया गया है। सप्तम अध्याय में ध्यान के महत्त्व और उसके फल का विवेचन किया गया है। उपसंहार अन्तिम अध्याय है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह ग्रन्थ शोधार्थियों को नई दिशा में शोध एवं पाठकोंको उत्तम जीवनशैली हेतु प्रेरित करने में उपयोगी सिद्ध होगा। इत्यलं। वीर नि.सं. 2538 प्रस्तुति -डॉ. अजिंत कुमार जैन (जनरल मैनेजर म.प्र. लघु उद्योग निगम मर्यादित) एम 8/4, गीताजंली काम्पलैक्स, कोटरा सुल्तानाबाद, भोपाल (म.प्र.) (xii)
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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