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________________ से अभिहित किया गया है। स्व और पर को निश्चित रूप से जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। यहाँ 'स्व' का अर्थ है ज्ञानात्मक तथा 'पर' का अर्थ है घटादि भिन्न पदार्थ / अर्थात् जो ज्ञान अपने स्वरूप को तथा घट-पटादि पदार्थों को सम्यक् प्रकार से जानता है, वही प्रमाण कहलाता 2. अपायविचय धर्म्यध्यान - अपाय का अर्थ है दोष अथवा दुर्गुण / जिस ध्यान में विद्वज्जन उपायपूर्वक हेतु के अन्वेषण के साथ - कर्मों के विनाश का विचार करते हैं उसे बुद्धिमान गणधरादि अपायविचय धर्म्यध्यान कहते हैं। इसमें रागादिक्रिया, कषायक्रिया, मिथ्यात्वादि आस्रवक्रिया, हिंसादिक्रिया एवं विकथा, परीषह आदि से इस लोक व परलोक में उत्पन्न अनर्थ कैसे हैं ? इन क्रियाओं के करने से जीव दीर्घकालीन आधि, व्याधि, उपाधि को प्राप्त करके संसार वृद्धि करता है। आचार्य शुभचन्द्र ने अपायोन्मुखी चिन्तनधारा का विवेचन करते हुए स्पष्ट किया है - "सर्व ज्ञाता श्री जिनेश्वर देव दारा निर्देशित ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपरत्नत्रयात्मक मार्ग को न पाकर, उसका अवलम्बन न कर इस संसार रूपी बीहड़ वन में अनेक प्राणी भटक रहे हैं। वे अभागे प्राणी जिनेश्वर प्रभु रूपजहाज का आश्रय न पाने के कारण संसार रूपी सागर में सदा डूबते-उतराते रहते हैं।''4 राग, द्वेष, क्रोधादि कषाय तथा मिथ्यात्वादि ये सब दोषों के अन्तर्गत आते हैं। साधक इनसे छूटने का प्रयत्न करता है, ऐसा चिन्तन करना ही अपायविचय धर्म्यध्यान है। जीव के जो शुभाशुभ भाव होते हैं उनका चिन्तन करना भी अपायविचय धर्म्यध्यान कहलाता है। आदिपुराण में 'अपाय' को अभाव कहा गया है अर्थात् मिथ्यादृष्टियों के मार्ग के अभाव का विचार करना अपायविचय धर्म्यध्यान है। एक विचारधारा के अनुसार इस ध्यान में ऐसा भी विचार किया जाता है कि 'मन, वचन, काय इन तीनों की प्रवृत्ति योग है और योग से संसार का वर्धन होता है अत: इन प्रवृत्तियों से कैसे छुटकारा पाया जा सकता है, इस प्रकार का विचार अपायविचय धर्म्यध्यान 1. तत्त्वार्थसूत्र, 1/33. जैनतर्कभाषा, नयपरि., पृ. 21. सन्मतितर्क, 1/3-5 आदि कुन्दकुन्दभारती, प्रस्तावना, पृ. 10-6. 2. प्रमाणनयतत्त्वालोक, 1/2. 3. ज्ञानार्णव, 31/1. 4. ज्ञानार्णव, 31/2-3. 5. ध्यानशतक, 50. 6. मूलाचारप्रदीप, 6/2046-7. भगवती आराधना, गाथा 1707. . 152
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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