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________________ ही आज्ञाविचय धर्म्यध्यान है।' आगम को दो भागों में विभाजित किया गया है - 1. अर्थसमूह रूप तथा 2. शब्दसमूह रूप / शब्दसमूह रूप आगम गणधर प्रणीत है, जबकि अर्थसमूह आगम सर्वज्ञप्रणीत होता है। सर्वज्ञप्रणीत कथन को ही गणधर ने नय एवं प्रमाणों के अनुकूल निबद्ध किया है। इसलिए नय और प्रमाण के स्वरूप को समझे बिना सर्वज्ञ की देशना को आत्मसात् कर पाना शक्य नहीं होता। __ नय और प्रमाण का स्वरूप - प्रमाण से परिच्छिन्न अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक अंश को ग्रहण करने वाले (दूसरे अंशों का प्रतिषेध किये बिना) अध्यवसाय विशेष को नय कहा जाता है। प्रत्येक पदार्थ अनन्त धर्मात्मक होता है / प्रमाण पदार्थ को अनन्तधर्मात्मक सिद्ध करता है, जबकि नय पदार्थ के अनन्तधर्मों में से किसी एक धर्म को ग्रहण करता है। नय अवशिष्ट अन्य धर्मों का निरसन नहीं करता। जैसे समुद्र का एकदेश या एकांश समुद्र नहीं कहा जाता, वैसे ही नयों को प्रमाण या अप्रमाण भी नहीं कहा जाता सकता। प्रत्येक वस्तु में मुख्यत: दो अंश होते हैं - 1. द्रव्य और 2. पर्याय / वस्तु को द्रव्यरूप से जानने वाले नय को द्रव्यार्थिक नय और वस्तु को पर्यायरूप से जानने वाले नय को पर्यायार्थिक नय कहते हैं। पर्यायार्थिक नय प्रतिक्षण उत्पाद-विनाश स्वभाव वाला है, जबकि द्रव्यार्थिकनय स्थिर स्वभाव वाला है। - इन दोनों नयों के अवान्तर भेद भी आगम में प्ररूपित हुए हैं। जैसे - द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद हैं - 1. नैगम, संग्रह और व्यवहार तथा पर्यायार्थिक नय के ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ व एवंभूत के रूप में चार भेद हैं। इन दोनों नयों के भी अनेक पर्यायवाची नाम उपलब्ध होते हैं। जैसे - पर्यायार्थिक नय के लिए व्यवहार, अशुद्ध, असत्यार्थ, अपरमार्थ, अभूतार्थ, परालंबी, पराश्रित, परतंत्र, निमित्ताधीन, क्षणिक, उत्पन्नध्वंसी, भेद एवं परलक्षी आदि। तथा द्रव्यार्थिक नय के लिए निश्चय, शुद्ध, सत्यार्थ, परमार्थ, भूतार्थ, स्वावलंबी, स्वाश्रित, स्वतन्त्र, स्वाभाविक, त्रिकालवी, ध्रुव, अभेद और स्वलक्षी आदि नाम अभिहित होते हैं। यही कारण है कि नयों की प्ररूपणा शास्त्रीय और आध्यात्मिक दो रूपों में की गई है। शास्त्रीय प्ररूपणा में इन्हें जहाँ द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक के रूप में प्रतिपादित किया गया है, वहीं आध्यात्मिक दृष्टि से इन्हें निश्चय और व्यवहार के नाम 1. धवला, 5, पृ. 70. योगशास्त्र, 10/9. ध्यानशतक, 45-6. ज्ञानार्णव, 32/1. ' आवश्यकनियुक्ति, गाथा 192. 151
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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