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________________ 3. विपाकविचय धर्म्यध्यान 4. संस्थानविचय धर्म्यध्यान इनके अलावा अन्य भेदों में जिनकी प्रमुखतया गणना होती है वे हैं दस भेद। धर्म्यध्यान के दस भेदों का कथन तो सर्वप्रथम मुनिप्रतिक्रमण पाठ में उपलब्ध होता है। किन्तु वहाँ उनके नामों का स्पष्टोल्लेख नहीं है। प्रतिक्रमणपाठ के संस्कृत टीकाकार आचार्य प्रभाचन्द्र बाद में अवश्य ही उनके नामों को गिनाने का प्रयत्न किया है। आचार्य जिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण में इन भेदों के विषय में सविस्तार विवेचन किया है तथा / इनके नाम निम्नत: बतलाएँ हैं - 1. अपायविचय, 2. उपायविचय. 3. जीवविचय, 4. अजीवविचय, 5. विपाकविचय, 6. विरागविचय, 7. भवविचय, 8. संस्थानविचय, 9. आज्ञाविचय और 10. हेतुविचय। इन भेदों के विस्तार की यहाँ आवश्यकता नहीं है। अत: इनको यहाँ विराम देते हुए चार भेदों के विषय में ही विवेचन करना उचित होगा। 1. आज्ञाविचय धर्म्यध्यान - आज्ञा शब्द से आगम, सिद्धान्त या जिनवचन का अर्थ स्वीकार किया जाता है। ये तीनों ही एकार्थवाची नाम हैं। इसलिएँ सर्वज्ञ प्रणीत आगम को प्रमाण मानकर, उस पर पूर्ण श्रद्धा रखकर, उसमें प्रतिपादित नय, प्रमाण, निक्षेप सात भंग.नौपढार्थ पॉच अस्तिकाय अथवा षट ढव्य छह जीवनिकाय ए आज्ञाग्राह्य जितने भी पदार्थ हैं उनका निरन्तर चिन्तन करना आज्ञाविचयं धर्म्यध्यान है। . वीतराग प्ररूपित तत्त्वों में से कोई यदि कभी बुद्धिगम्य नहीं होता है तो उसे "वीतराग प्रणीत वचन सत्य एवं तथ्यपूर्ण हैं' ऐसा मानकर चिन्तवन करना। क्योंकि उन्होंने रागदेष-मोह पर पूर्णत: विजय प्राप्त कर ली है अत: उनके वचन कदापि अन्यथा नहीं हो सकते / अपितु हमारी ही मति की दुर्बलता, नेय की गहनता, ज्ञानावरणादि कर्मों की तीव्रता तथा हेतु और उदाहरण संभव न होने के कारण से वह बुद्धिगम्य नहीं हो रहा है। अत: उसके विषय में ऐसा विचार करना - "जिनवचन ही सत्य है, सुनिपुण है, अनादिनिधन है, जगत् के जीवों का हित करने वाला है, अमूल्य है, अमित है, अमृत है, अनन्त अर्थगर्भित है, निरवद्य है, अनिपुणजनों के लिए दुर्जेय है, नय एवं प्रमाण से ग्रहण करने योग्य है।" इस प्रकार जिनवचनों का चिन्तन, निदिध्यासन एवं मनन करना, उसमें संदेह न करना नं सन्य 1. मुनिप्रतिक्रमणत्रयी, पृ.10. 2. वही, पृ. 188. 3. हरिवंशपुराण, 56/38-50. 150
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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