________________ बिना ही स्वयं हुआ करते हैं। हे धीर! निन्दनीय ये दोनों ध्यान अनेक प्रकार के स्वरूप से संयुक्त और पाप रूप वृक्ष की जड़ होते हुए अतिशय कडुवे फलों से व्याप्त हैं। यदि तू मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हुआ है तो उनके उपर्युक्त स्वरूप का भलीभाँति विचार करके उन्हें शीघ्र ही छोड़ दे। किसी भी महान् कार्य को करने के लिए जहाँ उसके साधक निमित्तों को जुटाना होता है, उसी प्रकार उसके बाधक कारणों को भी हटाना होगा / बाधक के हटने और साधक के जुटने से कार्य की सफलता अवश्यंभावी हो जाती है। धर्म्यध्यान का स्वरूप - वस्तु का स्वभाव धर्म है। "धर्मादनपेतं धर्मम्''2 धर्म से युक्त ध्यान को धर्म्यध्यान कहते हैं। जिससे धर्म का परिज्ञान होता है वह धर्म्यध्यान का लक्षण समझना चाहिए।' ____ जहाँ मनोवृत्ति या चिन्तन की एकाग्रता उन विषयों पर टिकी होती है, जिनका धर्म से सम्बन्ध है जो निरवद्य हैं - पवित्र हैं, वह धर्म्यध्यान है। यह एकाग्रता प्रशस्त या शुभ रूप है। इसमें ज्यों-ज्यों भावों की निर्मलता वृद्धिंगत होती है, आत्मा के कर्मबन्धन शिथिल होते जाते हैं। यह ध्यान पुण्यात्मकता लिए हुए है। धर्म्यध्यान के भेद - नयदृष्टि से ध्यान दो प्रकार का माना गया है - 1. सालम्बन और 2. निरालम्बन / सालम्बन अर्थात् इसमें किसी वस्तु का आश्रय लिया जाता है। सालम्बन ध्यान भेदात्मक रूप में होता है और उसमें ध्यान और ध्येय को अलग-अलग माना गया है। आलम्बन के अनुसार धर्म्यध्यान को चार प्रकार का माना गया है। जैन योग परम्परा में लगभग सभी आचार्यों ने एकमत से धर्म्यध्यान के चार भेद ही स्वीकार किये हैं। इसी परम्परानुसार आचार्य शुभचन्द्र ने भी धर्म्यध्यान के चार भेदों का वर्णन किया है। चित्त की एकाग्रता के साथ धर्म्यध्यान के चार प्रकारों का चिन्तन करना चाहिए। जिनके नाम निम्नानुसार हैं - 1. आज्ञाविचय धर्म्यध्यान, . 2. अपायविचय धर्म्यध्यान 1. इति विगतकलङ्कर्वर्णितं चित्ररूपं, दुरितकुरुहकन्दनिन्द्यदुानयुग्मम् / कटुकतरफलाढ्यं सम्यगालोच्य धीर! त्यज सपदि यदि त्वं मोक्षमार्गे प्रवृत्तः।। - ज्ञानार्णव, 24/39. 2. सर्वार्थसिद्धि, पृ. 351. . 3. भगवती आराधना, गाथा 1709. 149