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________________ गुणस्थान एवं स्वामी - यह रौद्रध्यान अविरत और देशविरत गुणस्थान वाले जीवों के होता है। यह ध्यान छठे गुणस्थान के पहले पाँच गुणस्थानों में होता है। प्रमत्तसंयतादि गुणस्थानों में नहीं होता / केवल मिथ्याष्टियों से पंचम गुणस्थान तक के जीवों के ही होता है। सर्वविरत मुनि को यह रौद्रध्यान इसलिए नहीं होता क्योंकि वे हिंसादि पापों से मन, वचन, काय से प्रतिज्ञाबद्ध होकर सर्वथा विरत हैं। वह कभी प्रमाद के कारण आर्तध्यानी तो हो सकते हैं लेकिन रौद्रध्यानी नहीं। मिथ्यादृष्टि जीवों को तो सच्चे तत्त्व एवं श्रद्धा का पता नहीं होता इसलिए वह इस रौद्रध्यान में फँस जाता है। वैसे यह ध्यान किसी के भी हो परन्तु यह प्रशंसनीय नहीं होता, अर्थात् सर्वथा त्यागने योग्य ही होता है।' रौद्रध्यान और लेश्या व भाव - यह रौद्रध्यान अत्यन्त अशुभ है। इसमें कापोत, नील एवं कृष्ण ये तीन अशुभ लेश्याएँ हुआ करती हैं। यह रौद्रध्यान खोटी वस्तुओं पर ही होता है। इस ध्यान में तीनों अशुभ लेश्याएँ अपने प्रभावकारी रूप में स्थित रहती हैं। रौद्रध्यान का फल - रौद्रध्यान सामान्य तौर से संसार की वृद्धि करने वाला है और खास तौर से नरकगति के पापों को उत्पन्न करने वाला है। यह ध्यान नरकगति की जड़ है। अत्यन्त दुःख और सन्ताप से भरे हुए नरक में अनेक सागर पर्यन्त डाले रखना इसका फल है / उत्कृष्ट दुःखों को देने वाली गति नरकगति कहलाती है। रौद्रध्यान में तीव्र संक्लेश ही होता है, इससे उनसे बाँधे जाने वाले सानुबन्ध कर्म द्वारा भव परम्परा का सर्जन होना, संसार की वृद्धि होना ही स्वाभाविक है। इससे व्यक्ति संसार के बन्धन में पड़ जाता है और नरक को प्राप्त करता है। यह ध्यान अतिशय कठिन फल वाला है, तीव्र दुःख ही इस रौद्रध्यान का फल माना गया है। प्राणियों के अनादिकालीन दृढ संस्कारों से ये दुष्ट ध्यान प्रतिसमय प्रयत्न के 1. ज्ञानार्णव, 26/36. महापुराण, 21/43. चारित्रसार, 171/1. ध्यानशतक, 23. द्रव्यसंग्रह टीका पृ. 201. सर्वार्थसिद्धि, 9/35/448. मूलाचार प्रदीप, 6/2038. महापुराण 21/44. 2. महापुराण, 21/44. ज्ञानार्णव, 26/36-44. मूलाचार प्रदीप 6/2035-6. ध्यानशतक 24. चारित्रसार, 170/5. 148
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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