________________ खरीदूं आदि विविध उपायों से द्रव्य की रक्षा करने की भावना रखना, कुटुम्ब परिवार को हमेशा खुश रखू ताकि वे हर समय काम में आएँ, मकान आदि की सफाई रखू, जिससे गिरे नहीं, प्राण हानि न हो, इस प्रकार विविध प्रकार से सम्पत्ति और संतति के रक्षणार्थ विचार करना यह भी विषयसंरक्षणानन्द रौद्रध्यान है। ___ शरीर रक्षा की दृष्टि से शीत, उष्ण, वर्षा ऋतु में उपयोगी वस्त्र, अन्न, मकानादि की रक्षा की भावना रखना, शत्रु रक्षार्थ शस्त्रों एवं सभटों की रक्षा का उपाय सोचना, उसमें सतत् चिन्तन रहना, वात, पित्त, कफ आदि रोगों से उत्पन्न आधि, व्याधि को दूर करने के लिए सतत् औषधोपचार, व्यन्तरादि देवों के उपद्रवों से मन्त्रादि व्दारा शरीर को सुरक्षित रखने की चिन्ता करना, स्वयं सुखी रहने की सतत् भावना रखना, हृष्ट-पुष्ट काय को देखकर हर्षित होना, अभक्ष्यादि पदार्थों द्वारा शरीर को पुष्ट करने की भावना रखना, स्वजन एवं सम्पत्ति, राजा, मित्रादि को नाश करने की क्रूर भावना रखना, उन्हें कष्ट में डालने के लिए विविध उपाय खोजना इस प्रकार शब्द, रस, रूप, गन्ध, स्पर्शादि पदार्थों के संग्रह-रक्षण के लिए अतिशय संक्लेश परिणाम से मन को उपरोक्त सभी क्रियाओं में संलग्न करना ही विषयसंरक्षणानंन्द अथवा परिग्रहानन्द रौद्रध्यान है। हिंसा, झूठ, चोरी और धन संरक्षण ये चारों प्रकार के रौद्रध्यान स्वयं करे, दूसरों से कराये तथा करवाने को अनुमोदना दे, इन तीनों के निमित्तादि का चिन्तन करना ही रौद्रध्यान है। रागद्वेष-मोहादि से व्याकुल जीव को ही ये चारों प्रकार के रौद्रध्यान होते हैं / ये चारों ही राग, द्वेष और मोह के जनक हैं, संसारवर्धक हैं तथा नरकगति की जड़ हैं।'' .. यद्यपि विषयों की अपेक्षा तो रौद्रध्यांन के अनेक भेद हो जाते हैं, किन्तु सामान्यतया रौद्रध्यान के बाह्य और आभ्यन्तर रूप से दो प्रकार हैं। जिनके लक्षण निम्नानुसार हैं - . . बाह्यरौद्रध्यान के लक्षण - हिसादि उपकरणों का संग्रह करना, क्रूर जीवों पर अनुग्रह करना, दुष्ट जीवों को प्रोत्साहन देना, निर्दयतादिक भाव, व्यवहार की क्रूरता, मन, वचन, काय की प्रवृत्ति की निष्ठुरता एवं ठगाई, ईर्ष्यावृत्ति, मायाप्रवृत्ति, क्रोध करना, उसके कारण नेत्रों से अंगार बरसना, भुकुटियों का टेढ़ा होना, भीषण रूप बनाना, पसीना आना, अंग प्रत्यंग कांपना आदि अनेक प्रकार के रौद्रध्यान के बाह्य लक्षण हैं। ___ आभ्यन्तर रौद्रध्यान के लक्षण - मन, वचन, काय से दूसरे का हमेशा बुरा सोचना, दूसरे की बढ़ती एवं प्रगति को देखकर सतत् मन में जलना, दु:खी को देखकर आनन्दित होना, गुणी जनों को देखकर ईर्षा करना, इहलोक-परलोक के भय से बेपरवाह रहना, पश्चात्तापरहित प्रवृत्ति होना, पापकार्य से खुश रहना, धर्म से विमुख होना, कुदेव, कुगुरु, कुधर्म में श्रद्धा रखना आदि रौद्रध्यान के आभ्यन्तर लक्षण हैं रौद्रध्यान : - 1. ज्ञानार्णव, 24/27-32. ध्यानशतक, गाथा 24. 2. ज्ञानार्णव, 24/35-36 147