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________________ है।' अथवा रागद्वेष से लिप्त प्राणी दुःख या कष्ट पूर्ण जन्म-मरण के चक्र से कैसे मुक्त हो, ऐसा चिन्तन करना अपायविचय धर्म्यध्यान है।' 3. विपाकविचय धर्म्यध्यान - विपाक का अर्थ परिपाक या फल है। आस्रव आत्मा में कर्म आने का माध्यम है। यह सरोवर के उस नाले जैसा है जिसमें से पानी . आ-आकर सरोवर में एकत्र होता है। आत्मा को आवृत्त करने वाले कर्म आत्मा के परिणाम, अध्यवसाय या भाव और उद्यम के अनुरूप भिन्नता लिए होते हैं। अतएव उनका सुखद, दु:खद आदि भिन्न-भिन्न स्थितियों में और भिन्न-भिन्न समयों में उदय होता है। इस ध्यान का साधक यही विचार करता है कि कर्म का उदय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का आश्रय पाकर शुभ और अशुभ रूप फल देता है। कर्मों की इस विचित्रता पर विचार करते हए उसकी प्रक्रिया पर चिन्तन करना विपाकविचय धर्म्यध्यान है। कर्मों के विपाक से तात्पर्य उदय, उदीरणा, संक्रमण, बन्ध और मोक्ष इन सभी को जानना चाहिएँ। षट्खण्डागम के अनुसार कर्म प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश के भेद से चार भेद वाला है। ऐसे कर्मों के विपाक का चिन्तन करना विपाकविचय धर्म्यध्यान है।' प्राणियों के कर्मों का समूह निश्चित द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से अपने नामानुरुप फल को देता है। जिससे यह प्राणी पुष्पमाला, सुन्दर शय्या, आसन, यान, वस्त्र, स्त्री, मित्र, पुत्रादि को तथा कपूर, अगुरु, चन्द्रमा, चन्दन, वनक्रीड़ा, पर्वत, महल, ध्वजादिक, पक्षी, नगरी और खाने योग्य अन्नादि वस्तुसमूह को पाकर सुख को भोगते हैं तथा सब ऋतुओं में सुख देने वाले रमणीय कामभोग के स्थान क्षेत्रों को पाकर अतिशय सुख का अनुभव करता है तथा कुछ प्राणी संसार के मार्ग में चलते हुए प्रास- भाले, असि- तलवार, क्षुर-छुरे, यन्त्र, बन्दूक आदि अस्त्र, सर्प, अग्नि, उग्र ग्रह, शीर्ण - सड़े हुए दुर्गन्धित अंग, कृमि-कीड़े, काँटे, रज, क्षार, अस्थि, कीचड़, पाषाण, बन्दीगृह, सांकल, कीले, हथकड़ी, निर्दय शत्रु इत्यादि अनेक प्रकार के पदार्थों को प्राप्त कर घोर दुःख पाते हैं। . उपर्युक्त दोनों सुखात्मक एवं दुःखात्मक परिस्थितियों के मूल हेतु के उच्छिन्न करने के लिए उद्यत होते हुए उनके विपाक का चिन्तन करना विपाकविचय धर्म्यध्यान है और ऐसा करने से कर्मों से स्वातन्त्र्य प्राप्त होता है। ज्ञानावरणादि कर्मों का अनुभाग, जो कि गुड, खाण्ड, मिश्री और अमृत तथा नीम, कांजी, विष और हलाहल आदि के समान शुभाशुभ फल होता है, का विचार भी 1. आदिपुराण, 21/141-2. 2. सर्वार्थसिद्धि, 1/4 पृ. 11. 3. धवला, 13, पृ. 41. '4. ज्ञानार्णव, 35/1-5 आदिपुराण, 21/142-5. . 153
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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