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________________ स्थापित करने के लिए ब्राह्मण, गुरु, देवता आदि की स्वार्थबुद्धि से पूजा एवं स्मरण करने का संकल्प करना, जीवों को बन्धन में बांधकर, शत्रु को शक्तिहीन कर, युद्ध में जयविजय-पराजय की भावना कर आनन्दित होना, कत्लखाने में प्राणियों के करुण क्रन्दन को देख-सुनकर अत्यधिक आनन्दित होना, शूली पर चढ़ते हुए जीव की वेदना को देखकर विचार करे, कि अच्छा हुआ, इसे तो ऐसा ही दण्ड मिलना चाहिए था, बड़ा जुल्मी था, पापी था, क्रूर था, निर्दयी था, हिंसक था, अच्छा हुआ मर गया। शिल्पकारों की कलाओं से प्रसन्न होकर हिंसक प्रवृत्ति में रस लेना। डास-मच्छर, सर्प, बिच्छू आदि विषैले प्राणियों को दवा आदि से खत्म करके आनन्दित होना तथा चक्की, हल, बखर, कुदाली, . फावड़ा, ऊखल, मूलस, सरौता, हसियाँ, हथौड़ा, कैंची, बन्दूक, तलवार, चाकू आदि अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करके जीवों की हिंसा करने में खुशी मनाना / ये सभी हिसानुबन्धी रौद्रध्यान हैं। ये सभी बातें रौद्रध्यान के प्रथम भेद में आती हैं। इसके अतिरिक्त ईर्ष्यावृत्ति, मायावृत्ति, हिंसक शस्त्र, वस्त्र, ग्रन्थ, होम आदि का निर्माण करना एवं हमेशा हिंसाजनक वस्तुओं को उपयोग में लाने की भावना रखना हिसानुबन्धी रौद्रध्यान है।" . 2. मृषानन्द रौद्रध्यान - झूठी कल्पनाओं के जाल से उत्पन्न, पाप के मैल से मलिन चित्त होकर व्यक्ति जो चेष्टाएँ करता है, उसी में रमा रहता है, संलग्न रहता है, उसके अतिरिक्त उसका चिन्तन अन्यत्र जाता ही नहीं, ऐसा मृषानन्द रौद्रध्यान कहा गया है। जो असत्यभाषी अभिमान के वशीभूत होकर यह विचार करता है कि मैं ठगने वाले शास्त्र को रचकर और दुष्टतापूर्ण मार्ग का उपदेश देकर लोगों को आपत्ति में डालूँगा व अभीष्ट सुख को भोगूंगा, इसके अतिरिक्त असत्यभाषण की चतुराई के प्रभाव से मैं लोगों से बहुत प्रकार के धन को तथा घोड़ा, हाथी, नगर, सुवर्ण आदि की खानों एवं सुन्दर कन्यादि रूप रत्नों को ग्रहण करूँगा, इस प्रकार जो असत्य वचनों के द्वारा बेचारे साधारण जनों को अतिशय ठगता हुआ उन्हें समीचीन मार्ग से भ्रष्ट करके कुमार्ग में प्रवृत्त कराता है वह रौद्रध्यान का स्थान (आश्रय) होता है। ठग विद्या के शास्त्रों का संग्रह करना एवं निर्माण करना, व्यसनी होना, चतुराई से दूसरों को ठगना तथा असत्य के बल से राजा, प्रजा, सेठ, साहूकार, भोले जीवों को परेशान करना, असत्य वचन का सतत् प्रयोग करना, वाक् कुशलता से 1. हते निष्पीड़िते ध्वस्ते जन्तुजाते कदर्थिते। स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिंसारौद्रमुच्यते॥ - ज्ञानार्णव, 24/4,7 ध्यानशतक, गाथा 19. स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा 475. सिद्धान्तसारसंग्रह, 11/42. ध्यानकल्पतरु, पृ. 12. ध्यानदीपिका, गाथा 85-86. 144
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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