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________________ तथा प्रवृत्तियों से संश्लिष्ट ध्यान को रौद्रध्यान कहा है। जो पुरुष प्राणियों को रुलाता है, वह रुद्रव क्रूर कहलाता है तथा उस पुरुष के द्वारा जो ध्यान किया जाता है वह रौद्रध्यान कहलाता है। यह ध्यान भी अशुभ अथवा अप्रशस्त ध्यान है। इसमें जीव स्वभाववश सभी प्रकार के पापों को करने में प्रवृत्त रहता है। वह हिंसा आदि पापकार्य करके गर्वपूर्वक डींगे मारता है। यह ध्यान अत्यन्त अनिष्टकारी है। चोर, शत्रुजनों के वध सम्बन्धी महादेष से उत्पन्न ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है। हिंसा में आनन्दानुभूति, असत्य वचन से सुख मानना, चोरी में प्रसन्नता का अनुभव करना तथा विषयों के संरक्षण में सोत्साह रहना इन चारों के आधार पर जीवों में उत्पन्न होने वाला रौद्रध्यान चार प्रकार का होता है। जिनके नाम निम्न हैं - 1. हिंसानन्दी * 2. मृषानन्दी 3. चौर्यानन्दी / 4. संरक्षणानन्दी 1. हिंसानन्द रौद्रध्यान - एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक किसी भी जीव को या सचित्त पदार्थ को स्व तथा पर से छेदन, भेदन, ताड़न, मारन, तापन, बन्धन, प्रहार, दमन आदि की प्रवृत्ति करना, नभचर-कौवा, तोता, कबूतर, आदि पक्षी, जलचरमगरमच्छ, मत्स्य आदि जन्तु, स्थलचर - गाय, भैंस, सिंह, बाघ, हाथी, घोड़ा, बैल आदि पशुओं के कान, नाक आदि बींधना, जंजीर आदि से बांधना, तलवार आदि शस्त्रों से प्राणरहित करने में आनन्द मनाना, हिंसक प्रवृत्ति में सतत् कुशल रहना, पापकारी कार्य में प्रवीण, क्रूर, निष्ठुर, निर्दय लोगों से मैत्री करना अर्थात् सतत् उनके साथ रहना, प्राणियों को कैसे. मारा जाय ? उसके लिए कौन से उपाय किये जाएं ? इसमें कौन चतुर है ? इस प्रकार का संकल्प-विकल्प करना, अश्वमेधयज्ञ, गोमेधयज्ञ, अजमेधयज्ञ, नरमेधयज्ञ आदि यज्ञादि में प्राणियों की हिंसा करके आनन्द मनाना, उन्हें जलते हुए देखकर प्रसन्न होना, खुशी मनाना; निरपराध जन्तुओं को पीड़ित करके खुश होना, शान्ति 1. प्राणिनां रोदनाद रुद्रः क्रूर: सत्त्वेष निर्पणः। पुंसांस्तत्र भवं रौद्रं विद्धि ध्यानं चतुर्विधम् / / - महापुराण, 21/42 भगवती आराधना, 1703/1528. मूलाचार, 396. 2. नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, 89. 3. हिंसानन्दामृषानन्दाच्चौर्यात्संरक्षणात्तथा। . प्रभवत्यङ्गिनां शश्वदपि रौद्रं चतुर्विधम् / / - ज्ञानार्णव, 24/3. 143
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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