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________________ आर्तध्यान और लेश्या - आर्त्तध्यान अशुभ या अप्रशस्त ध्यान के अन्तर्गत आता है इसलिए यह अशुभ होने के कारण अशुभ लेश्या वाला ही होता है। इसके कृष्ण, नील और कापोत ये तीन अशुभ लेश्याएं होती हैं, जो पाप रूप अग्नि में ईंधन के समान होती हैं।' जीव के कर्मों से उदित हुई ये तीनों लेश्याएं अत्यधिक संक्लिष्ट नहीं होतीं। जितनी वे रौद्रध्यान में अपने अत्यधिक रूप में रहती हैं, उतनी वे आर्तध्यान में प्रभावशाली नहीं होकर हीन रूप में विद्यमान रहती हैं। इन्हीं अशुभ लेश्याओं पर आश्रित होकर अशुभ रूप आर्त्तध्यान उत्पन्न होता है। आर्तध्यान का फल - संसार, कर्मबन्धन के कारण निर्मित होता है। आर्त्तध्यान से कर्मों का क्षय नहीं होता अपितु कर्मों का बन्धन बढ़ता है और कर्मों का बन्धन बढ़ने से संसार की.वृद्धि होती है, वह माया-मोह के चक्कर में पड़ जाता है एवं जन्म-मरण के भवसागर में चक्कर लगाता है ये सब ही आर्त्तध्यान के फलस्वरूप होता है। यही सामान्य रूप से आर्त्तध्यान का फल है। लेकिन इस फल के अलावा आर्त्तध्यान का एक विशेष फल होता है तिर्यश्चगति / तिर्यञ्चगति अनन्तदुःखों से व्याप्त है। आर्त्तध्यान अत्यन्त अशुभ दुःखों से व्याप्त एवं समस्त क्लेशों से भरा हुआ होने के कारण संसार के बन्धन का हेतु माना गया है। रौद्रध्यान - रौद्रध्यान का लक्षण - "प्राणिनां रोदनाद रुद्रः, तत्र भवं रौद्रम्' अर्थात् क्रूर, कठोर एवं हिंसक व्यक्ति को रुद्र कहा जाता है और उस प्राणी अर्थात् उस रुद्र प्राणी के दारा जो कार्य किया जाता है, उसके भाव को रौद्र कहते हैं। इन अतिशय क्रूर भावनाओं 1. कावोय-नील-कालालेस्साओ णाइसंकिलिट्ठाओ। __ अदृज्झाणोवगयरस कम्मपरिणामजणिआओ।। - वही, 14. 2. अप्रशस्ततमं लेश्या त्रयमाश्रित्य जृम्भितम्। अन्तर्मुहूर्त्तकालं तद अप्रशस्तावलम्बनम् / / - महापुराण, 21/38. चारित्रसार, 169/3. 3. एयं चउव्विह राग-दोस-मोहं कियस्स जीवस्स। __ अदृज्झाणं संसारवद्धणं तिरियगइमूलं / / - ध्यानशतक गाथा 10 4. अनन्तदुःखसंकीर्णमस्य तिर्यग्गते: फलम् / - ज्ञानार्णव, 25/40. सर्वार्थसिद्धि 9/29. राजवार्तिक 9/33/1/629. चारित्रसार 169/4. मूलाचारप्रदीप 6/2016. 5. रुद्रः क्रूराशय: प्राणी प्रणीतस्तत्त्वदर्शिभिः।। रुद्रस्य कर्मभावो वा रौद्रमित्यभिधीयते।। - ज्ञानार्णव, 26/2. रुद्रः क्रूराशयः कर्म तत्र भवं वा रौद्रम्। - सर्वार्थसिद्धि.9/28/445/19. राजवार्तिक 9/28/2/627/28. भावपाहुड टीका 78/423. 142
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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