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________________ जाती है। इस प्रकार से इन अनेक बाह्य लक्षणों से आर्त्तध्यान का पता चल जाता है। जिसे केवल अपनी ही आत्मा जान सके वह आध्यात्मिक आर्त्तध्यान कहलाता है और जिसे अन्य लोग अनुमान कर सके बाह्य आर्त कहलाता है। आर्तध्यान के गुणस्थान एवं स्वामी - ___ आर्तध्यान चारों भेदों सहित छठे गुणस्थान तक ही रहता है। आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने भी अपनी सर्वार्थसिद्धि टीका में कहा है - "अविरत - असंयतसम्यग्दृष्टि और देशविरत जीवों के चारों ही प्रकार का आर्तध्यान होता है, क्योंकि वे सब असंयमी होते हैं। प्रमत्तसंयतों के तो निदान के बिना शेष तीन ही आर्त्तध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रतावश कदाचित् होते हैं।'' हरिवंशपुराण के अनुसार छह गुणस्थानों तक छह भूमि वाला आर्त्तध्यान माना गया है। ज्ञानार्णव में भी छह गुणस्थान तक ही आर्तध्यान माना है, लेकिन संयतासंयत नामक पाँचवें गुणस्थान तक तो चार भेद सहित रहता है किन्तु छठे गुणस्थान में निदान रहित तीन प्रकार का ही रहता है। तत्त्वार्थवार्तिक में भी कहा है कि - "निदान को छोड़कर शेष ध्यान प्रमाद के उदय की तीव्रता से होते हैं, निदान प्रमत्त संयतों के नहीं होता है।'' मूलाचार; स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग और औपपातिकसूत्र में से किसी में भी ध्यान के स्वामियों का उल्लेख नहीं किया गया है। ध्यानशतक में भी आर्त्तध्यान मिथ्यादृष्टि व असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत गुणस्थानवी जीवों के होता है, ऐसा कहा गया है और वह चूंकि सब प्रकार के प्रमाद का मूल कारण है, मुनिजनों के लिए यह सर्वथा त्याज्य है। .1. मूर्छा कौशोल्यकेनाश्य कौसीद्यान्यति गध्नुता। भयोदेगानुशोकाच्च लिङ्गगान्यार्ते स्मृतानि वै।। बाह्यं च लिङ्गमार्त्तस्य गात्रग्लानिर्विवर्णता। हस्तान्यत्कपोलत्वं साश्रुतान्यच्च तादृशम् / / - महापुराण 21/40-41. 2. स्वसंवेद्याध्यात्मिकार्त्तध्यान - चारित्रसार, 167/5. 3. तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् - तत्त्वार्थसूत्र 9/34. 4. सर्वार्थसिद्धि 9/34 पृ. 5. हरिवंशपुराण 56/18 6. ज्ञानार्णव 25/38-39. 7. तत्त्वार्थवार्तिक 3/41/1. 8. तदविरददेसविरया-पमायपरसंजयाणुगं झाणं। - सव्वप्पमायमूलं वज्जेयव्वं जइजणेणं / / - ध्यानशतक गाथा 18. 141
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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