________________ जाती हैं। इस प्रकार रोग के विपाक होने पर उसके वियोग का सतत् चिन्तन करना ही आतंक नामक तीसरा आर्तध्यान है।' 4. निदान (भोगेच्छा) - तप-जप के फल रूप में देवेन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि ऋद्धि, राज्य की प्राप्ति, इन्द्र पद की इच्छा, विद्याधरों का आधिपत्य, धरणेन्द्र के भोगने योग्य भोग, स्वर्ग सम्पदा, स्वर्ग लक्ष्मी, संसार का विपुल वैभव, देवांगना का सुख-विलास, पूजा, मान-सम्मान, यश:कीर्ति की कामना, क्रोधाग्नि से दूसरे का अहित करने की भावना, कुलविनाशक भावना की कामना करना ही निदान नामक चतुर्थ आर्तध्यान है। पाँचों इन्द्रियों में दो इन्द्रियाँ (आँख और कान) कामी हैं तथा शेष तीन इन्द्रियाँ (स्पर्शन, रसना, घ्राणं) भोगी हैं। इन इन्द्रियों द्वारा अर्थात् श्रोतेन्द्रिय दारा राग-रागिनी का श्रवण, किल्लरियों का गायन, वाद्यादि के मनोहर राग सुनने के भाव उत्पन्न होना एवं उसमें आनन्द मानना, चक्षुरिन्द्रिय से नृत्य, सोलह शृङ्गारों से सुसज्जित स्त्री, विभिन्न मनोहर रमणीय दृश्यों एवं चित्रों को देखना, घ्राणेन्द्रिय से इत्र-पुष्पादि सुगन्धित पदार्थों को सूंघना, रसनेन्द्रिय से षट् रस भोजन एवं अभक्ष्य सेवन की भावना होना तथा भक्षण करना, स्पर्शेन्द्रिय से शयनासन, वस्त्र एवं आभूषण आदि विलासमय भोगों को भोगने की भावना होना ही भोगेच्छा अथवा भोगात नामक चतुर्थ आर्त्तध्यान है। यह चार प्रकार का आर्तध्यान संसारवर्धक, रागद्वेष- मोहादि से कलुषित जीव को होता है। तिर्यञ्चगति का कारण एवं रागद्वेषमोहादि भाव का जनक होने से संसार वृक्ष का बीज है। संसार के अधिकतर प्राणियों को आर्तध्यान ही होता है। ये जीव आर्तध्यान में ही निमग्न रहते हैं। किसी को इष्ट का वियोग होने के कारण दुःख है तो किसी को अनिष्ट 1. आचारांगसूत्र, ज्ञानार्णव 25/32, ध्यान शतक गाथा 7. ध्यानदीपिका (गुजराती - विजयकेशरसूरि) गाथा 76. तत्त्वार्थसूत्र 9/32. * 2. तत्त्वार्थसूत्र 9/34. ध्यानशतक गाथा 9. ज्ञानार्णव 25/35-36. 3. एवं चउव्विहरागद्दोसमोहकियरस जीवरस। अदृज्झाणं संसारवद्धणं तिरियगइमूलं / / रागो दोसो मोहो य जेण संसार हेयवो भणिया। अमि य ते तिण्णि वि, तो तं संसार तरुबीयं / / - ध्यानशतक गाथा 10, 13. 139