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________________ और मोह के कारण रात-दिन रिक्तता का अनुभव करना, उसी में एकाग्रता लिए घुले रहना इष्टवियोग जनित आर्तध्यान है। वे कैसे प्राप्त हों क्षण-क्षण उसे यही व्यथा या आकुलता बनी रहती है वह और सभी भूल जाता है, इसी पर टिका रहता है। चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, मांडलिक राजा आदि का राज्य-वैभव, सामान्य राज्य वैभव, भोगभूमि के अखण्ड सुख सौभाग्य, प्रधानमंत्री, मुख्यसेनापति आदि की पदवियाँ, मनुष्य-देव सम्बन्धी कामभोगों की प्राप्ति, नवयुवतियों का संयोग, पर्यंक, शय्या, अश्व, गज, रथ, कार आदि विविध वाहनों का योग, चन्दन, इत्र, सुगन्धित तेल . आदि मोहक पदार्थों की प्राप्ति, रत्न एवं सुवर्णजडित अनेक प्रकार के आभूषण, धनधान्यादि की विपुल प्राप्ति आदि इन सभी पदार्थों का संयोग होने पर सातावेदनीय कर्म के उदय से उनके वियोग न होने का अध्यवसाय करना तथा भविष्य में भी उनका वियोग न हो ऐसा निरन्तर चिन्तन करना द्वितीय आर्तध्यान है। इसके अतिरिक्त भोगों का नाश, मनोज्ञ इन्द्रियों के विषयों का प्रध्वंस, व्यापारादि में हानि, काल ज्ञान विषयक ग्रन्थ, स्वरादि लक्षणों, ज्योतिष आदि विद्या से अल्प आयु का ज्ञान होने पर चिन्तित होना, स्वजन के छोड़ जाने से मूर्छित होना, मित्रादि के वियोग से दु:खी होना, मृत्यु का चिन्तन करना, धन-संपत्ति का अपहरण होने पर खिन्न होना, यश:कीर्ति, मान-सम्मान के लिए प्रयत्नशील रहना, प्रतिष्ठा के लिए धनादि का अधिक व्यय करना, दुर्बलता एवं दरिद्रता के कारण पश्चात्ताप करना, मनोज्ञ वस्तु : की प्राप्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील रहना और उनकी प्राप्ति के बाद उनके वियोग की निरन्तर चिन्ता करना ही मनोज्ञ अवियोग चिन्ता नामक द्वितीय आर्तध्यान है।' 3. रोगप्रकोपजनितपीडाचिन्तन - वात, पित्त, कफ के प्रकोप से होने वाले भयंकर कंठमाला, कोढ, राजयक्ष्मा, क्षय, अपस्मार - मूर्छा, मिर्गी, नेत्ररोग, शरीर की जड़ता, अपङ्गता, कुब्जकपना, उदररोग- जलोदरादि, मूक, सूजन-शोथ, भस्मकरोग, कम्पन, पीठ का झुकना, श्लीपद (हाथीपाँव), मधुमेह और प्रमेह इन सोलह महारोगों से उत्पन्न पीड़ा और कष्ट अति दुःखदायक है। मनुष्य के शरीर में साढे तीन करोड़रोम माने जाते हैं। उनमें से प्रत्येक रोम में पौने दो रोग कहे जाते हैं। जब तक मनुष्य के सातावेदनीय कर्म का उदय रहता है, तब तक रोगों की अनुभूति नहीं होती। परन्तु जैसे ही असातावेदनीय कर्म का उदय होता है कि इन सोलह रोगों में से किसी भी एक रोग का विपाक होता है। रोग के विपाक होते ही उसकी भयंकर वेदना से मन व्याकुल हो जाता है। उसे दूर करने के लिए प्रयत्न शुरु किये जाते हैं। नाना प्रकार के आरम्भ, समारम्भ, छेदन, भेदन, पचन, पाचन, आदि क्रियाएँ की 1. ध्यान शतक, गाथा . 8, ज्ञानार्णव 25/29-31, ध्यानदीपिका गाथा, 73-74, सिद्धान्तसारसंग्रह 11/38, श्रावकाचारसंग्रह भाग 5, पृ. 351. . 138
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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