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________________ पुन: इन्हीं ध्यानों में अप्रशस्त ध्यान के आर्त और रौद्र तथा प्रशस्त ध्यान के धर्म्य और शुक्ल इस प्रकार चार भेद किये हैं। इसी प्रकार आगम ग्रन्थों में भी इन्हीं चार भेदों का उल्लेख है।' 1. आर्तध्यान - आर्तध्यान शब्द का अर्थ - चेतना की अरति या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा गया है। 'ऋते: भवम् आतम्' इस निरुक्ति के अनुसार दुःख में होने वाली संक्लिष्ट परिणति का नाम आर्त्तध्यान है। दु:ख के निमित्त से या दुःख में होने वाली दशा या परिणति को आर्तध्यान कहा गया है। इसी प्रकार राग भाव से जो उन्मत्तता होती है, वह केवल अज्ञान के कारण ही होती है जिसके फलस्वरूप जीव उस अवांछनीय वस्तु की प्राप्ति- अप्राप्ति के प्रति दुःखी होता है वही आर्त्तध्यान है। आर्त्तध्यान सामान्यत: तो दुःख-क्लेश रूप परिणाम है। अनिष्ट संयोगज, इष्टवियोगज, रोगप्रकोपजनित या पीडाचिन्तन तथा निदान के आधार पर आत ध्यान के चार प्रकार हैं। तत्त्वार्थसूत्र के कर्ता आचार्य उमास्वामी ने भी आर्तध्यान के चार प्रकार बतलाये हैं। तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के सभी मनीषियों ने एक स्वर में इन चारों ही भेदों का कथन किया है। ध्यान से सम्बन्धित अन्य ग्रन्थों में भी आर्त्त ध्यान के चार भेदों का ही कथन हुआ है। 1. अनिष्टसंयोगज - अपने कुटुम्बीजन, धन, शरीर को नष्ट करने वाले, अग्नि, जल, विष, शस्त्र, सर्प, सिंह, भूमि तथा बिल में रहने वाले जीव जन्तु, दुर्जन, शत्रुत्व रखने वाले राजा इत्यादि के कारण अनिष्ट संयोग या अनभीप्सित स्थिति का * प्राप्त होना प्रथम अनिष्टसंयोग नामक आर्त्तध्यान है। इसमें अपने समक्ष आए हुए या नहीं आये हुए भी अनिष्ट पदार्थों के द्वारा जो क्लेश होता है वह भी अन्तर्भूत हो जाता है। 2. इष्टवियोगज - इष्टवियोगज आर्तध्यान का वर्णन करते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है - राज्य, ऐश्वर्य, स्त्री, पारिवारिकजन, सुहृद, सौभाग्य, भोग्यपदार्थ, चित्त के लिए प्रीतिकर, सुन्दर इन्द्रिय विषय - इनका नाश होने पर संत्रास, भ्रम, शोक 1. अहँ रुदं धम्म सुक्वं झाणाइ तत्थ अंताई। णिव्वाणसाहणाई भवकारणमट्टरुद्दाई।। - ध्यानशतक, 5. 2. आर्त्तरौद्रधHशुक्लानि।। - तत्त्वार्थसूत्र 9/28. 3. प्रियभ्रंशेऽप्रियप्राप्तौ निदाने वेदनोदये। आतंकषायसंयुक्तं ध्यानमुक्तं समासतः।। - तत्त्वार्थसार 7/36. 4. मूलाचार 5/197, तत्त्वानुशासन 34. ध्यानस्तव 9.. 137
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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