________________ त्याग भी माना जा सकता है। नित्य कर्मों में प्रत्याख्यान का समावेश इसलिए किया गया है कि साधक आत्मशुद्धि के लिए प्रतिदिन यथाशक्ति किसी-न-किसी प्रकार का त्याग करता है। नियमित त्याग करने से अभ्यास होता है, साधना परिपुष्ट होती है और जीवन में अनासक्ति का विकास व तृष्णा की मंदता होती है। दैनिक प्रत्याख्यान में सामान्यतया उस दिवस विशेष के लिए कुछ प्रतिज्ञाएँ ग्रहण की जाती हैं। जैसे सूर्य उदय के पश्चात् एक प्रहर अथवा दो प्रहर आदि तक कुछ नहीं खाना या सम्पूर्ण दिवस के लिए आहार का परित्याग करना अथवा केवल नीरस या रुखा भोजन करना आदि। मूलाचार में वट्टकेर आचार्य ने प्रत्याख्यान का लक्षण इस प्रकार निर्दिष्ट किया है - नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छहों में शुभ मन, वचन व काय से आगामी काल के लिए अयोग्य का त्याग करना प्रत्याख्यान है।' जो महापुरुष समस्त कर्मजनित वासनाओं से रहित आत्मा को देखने वाले हैं, उनके जो पापों के आने में कारणभूत भावों का त्याग है; उसे ही प्रत्याख्यान कहते हैं। त्याग प्रारम्भ करते समय. प्रत्याख्यान की प्रतिष्ठापना और अवधिपूर्ण होने पर उसकी निष्ठापना की जाती है। वीतराग भाव सापेक्ष किया गया प्रत्याख्यान ही वास्तविक है। प्रत्याख्यान और गीता - गीता में प्रत्याख्यान के स्थान पर त्याग के सम्बन्ध में विवेचन उपलब्ध होता है। वहाँ तीन प्रकार का त्याग बतलाया गया है - 1. सात्त्विक, 2. राजसिक और 3. तामसिक। 1. शास्त्रविधि से नियम किया हुआ कर्त्तव्य - कर्म करते हुए उसमें आसक्ति और फल का त्याग कर देना सात्त्विक त्याग है। . 2. सभी कर्म दुःख रूप हैं, ऐसा समझकर शारीरिक क्लेश के भय से कर्मों का त्याग करना राजस त्याग है। 3. तामसिक नियतकर्म का त्याग करना योग्य नहीं है, इसलिए मोह से उसका त्याग करना तामस त्याग है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन आचार एवं गीता के आचार दर्शन में षट् आवश्यकों का विवेचन प्रकारान्तर से मिल ही जाता है। यह भिन्न बात होती है कि उनमें क्विचित्-कदाचित् नामादिक का भेद होता है या किञ्चित् स्वरूप का भी भेद दिखाई देता है। किन्तु निष्कर्षत: दोनों के अभिप्रायों में अद्भुत सादृश दिखाई देता है। आसन - स्थिरतापूर्वक सुखावह उपवेशन ही आसन है। 'आस्यते आसने वा अनेन इति 1. मूलाचार, गाथा 27. 2. योगसार (अमितगति आचार्य), 5/51. 3. गीता, 18/4, 7-9. 4.योगसूत्र, 2/46. 128