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________________ आसनम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसके द्वारा स्थिरता एवं सुख प्राप्त हो वही आसन है। आचार्य शुभचन्द्र ने आसन निर्देश के पूर्व आसन योग्य स्थान का स्वरूप बतलाते हुए कहा है - 'सिद्धक्षेत्र, जहाँ कि बड़े-बड़े प्रसिद्ध पुरुष ध्यान कर सिद्ध हुए हो तथा पुराणपुरुष अर्थात् तीर्थंकरादिकों ने जिसका आश्रय किया हो, ऐसे महातीर्थ, जो तीर्थंकरों के कल्याणक स्थान हों ऐसे स्थानों में ध्यान की सिद्धि होती है।'' संयमी मुनि को संसार की पीड़ा को शान्त करने के लिए आगे लिखे स्थानों में निरन्तर सावधान होकर रहना चाहिए - समुद्र के किनारे पर, वन में, पर्वत के शिखर पर, नदी के किनारे, कमलवन में, प्राकार में, शालवृक्षों के समूह में, नदियों का जहाँ संगम हुआ हो, जल के मध्यं जो दीप हो उसमें, प्रशस्त वृक्ष के कोटर में, पुराने वन में, श्मशान में, सिद्धकूट तथा कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालयों में जहाँ कि महाऋद्धि के धारक, महाधीर, वीर, योगीश्वरं सिद्धि की वाँछा करते हैं, मन को प्रीति देने वाले रमणीय सर्व उपद्रवरहित स्थान में, पर्वत की जीवरहित गुफा में, शून्य घर तथा सूने ग्राम में, पृथ्वी के नीचे-ऊँचे प्रदेश में, कदलीगृह में, नगर के उपवन की वेदी के अन्त में, वेदी के मंडप में, चैत्यवृक्ष के समीप, मूसलाधार वर्षा, आतप, हिम, शीतादि तथा प्रचण्ड पवनादि से वर्जित स्थान में निरन्तर आसन लगाकर ध्यान करे। जिस स्थान में रागादि दोष निरन्तर लघुता को प्राप्त हों उसी स्थान में मुनि को बसना चाहिए तथा ध्यान के काल में तो अवश्य ही योग्य स्थान को ग्रहण करना चाहिए। आसन का विधान करते हुए लिखा है कि - धीर वीर पुरुष को ध्यान की सिद्धि के लिए लकड़ी के पटिए या शिलापट्ट पर पृथ्वी के ऊपर बालुमय जमीन के ऊपर अतिशय दृढ़ आसन ग्रहण करना चाहिए। पर्यकासन, अर्द्धपर्यंकासन, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्ग ये ध्यान के लिए योग्य आसन माने गए हैं। जिस-जिस आसन से सुख रूप उपविष्ट मुनि अपने मन को निश्चल कर सके वही सुन्दर आसन मुनियों को स्वीकार करना चाहिए। जिस आसन से ध्यान करते समय साधक का मन खिन्न न हो, वही उपादेय है। किन्तु कालदोष के कारण सामर्थ्यहीनता से पद्मासन या कायोत्सर्ग ये ही आसन प्रमुख हैं अथवा जिस आसन से बैठकर साधक अपने मन को निश्चल कर सके, वही आसन उसके लिए प्रशस्त है। - आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार पराक्रमशील स्थिर तथा सशक्त व्यक्तित्व ही ध्यान 1. ज्ञानार्णव, 28/1-7. 2. ज्ञानार्णव, 28/8. . 3. वही, 28/9-12. 129
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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