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________________ के गुणों के चिन्तन से सहित होते हुए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग नाम का आवश्यक है।' जिस मुनि का शरीर जल्ल और मल से लिप्त हो, जो दुस्सह रोग के हो जाने पर भी उसका इलाज नहीं करता हो, मुख धोना आदि शरीर के संस्कार से उदासीन हो और भोजन-शय्या आदि की अपेक्षा नहीं करता हो तथा अपने स्वरूप के चिन्तन में ही लीन रहता हो, दुर्जन और सज्जन में मध्यस्थ हो और शरीर से भी ममत्व न करता हो उस मुनि के कायोत्सर्ग नाम का तप होता है। योग्य आसन - कायोत्सर्ग खडगासन, पद्मासन अथवा लेटकर किया जा सकता है। मूलाचार आदि ग्रन्थों में कायोत्सर्ग के बत्तीस दोष बतलाए हैं। अत: शक्त्यनुसार इन दोषों को टालकर कायोत्सर्ग करने का विधान है। उन दोषों के नाम निम्नत: हैं - घोटक, लता, स्तम्भ, कुड्य, माला, शबरवधू, निगड, लम्बोत्तर, स्तनदृष्टि, वायस, खलीन, युग, कपित्थ, शिर:प्रकंपित, मूकत्व, अंगुलि, भूविकार, वारुणीपायी, दिशावलोकन, ग्रीवोन्नमन, प्रणमन, निष्ठीवन और अंगमर्षण। कायोत्सर्ग का फल - कायोत्सर्ग का परम्परया फल तो मोक्ष ही है। किन्तु इसका साक्षात् फल होता है चित्त की एकाग्रता एवं कर्मों की निर्जरा / जैसा कि आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में प्ररूपित किया है - 'ईर्यापथ के अतिचार को सोधने के लिए मोक्षमार्ग में स्थित शरीर में ममत्व को छोड़ने वाले मुनि दुःख के नाश करने के लिए कायोत्सर्ग करते हैं। कायोत्सर्ग करने पर जैसे अंगोपांगों की संधियाँ भिद जाती हैं उसी प्रकार इससे कर्मरूपी धूलि भी अलग हो जाती है। कायोत्सर्ग और गीता - गीता में कायोत्सर्ग की विधि ध्यान-योग के सन्दर्भ में देखी जा सकती है। गीता में कहा गया है कि - 'शुद्धभूमि में कुशादि या वस्त्र के आसन को, जो न अति ऊँचा हो न अति नीचा हो, स्थिर करके काया, शिर और ग्रीवा को समान और अचल धारण कर दृढ़ होकर अपने नासिका के अग्र भाग को देखकर अन्य दिशाओं को न देखता हुआ और ब्रह्मचर्य के व्रत में स्थिर रहता हुआ भयरहित यथायोग्य अच्छी प्रकार शान्त अन्त:करण वाला और सावधान होकर, मन को वश में करके मेरे में लगे हुए चित्तवाला और मेरे में परायण हुआ स्थित होवे।' प्रत्याख्यान आवश्यक - इच्छाओं के निरोध के लिए प्रत्याख्यान एक आवश्यक कर्तव्य है / प्रत्याख्यान का अर्थ है प्रवृत्ति को मर्यादित अथवा सीमित करना / संयमपूर्ण जीवन के लिए त्याग आवश्यक है, इस रूप में प्रत्याख्यान का अर्थ 1. मूलाचार गांथा 28. 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा, 467. 3. मूलाचार गाथा 662, 666. मूलाचार, गाथा, 670, 673. 4. मूलाचारगाथा 668 5. गीता, 6/11, 13-4. 6. योगशास्त्र, स्वोपज्ञवृत्ति, पृ. 104. 127
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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