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________________ कृत्य में जिस यजुर्वेद के मन्त्र का उच्चारण किया जाता है वह भी जैन प्रतिक्रमण विधि का एक संक्षिप्त रुप ही है। संध्या के संकल्प वाक्य में ही साधक यह संकल्प करता है कि मैं आचरित पापों के क्षय करने के लिए परमेश्वर के प्रति इस उपासना को सम्पन्न करता हूँ। यजुर्वेद के उस मन्त्र का मूल आशय भी यही है कि - मेरे मन, वाणी, शरीर से जो भी . दुराचरण हुआ हो उसका मैं विसर्जन करता हूँ। पारसी धर्म में भी पाप आलोचना की प्रणाली स्वीकार की गई है। खोरदेह अवस्था में कहा गया है - मैंने मन से बुरे विचार किए, वाणी से तुच्छ भाषण किया और शरीर से निंद्य कार्य किया इत्यादि प्रकार से जो गुनाह किए उन सबके लिए पश्चात्ताप करता हूँ। . अभिमान, गर्व से लोगों की निन्दा करना, स्वच्छन्दता, आलस्य, कानाफूसी, पवित्रता भंग, झूठी गवाही, चोरी, लूट-खसोट, व्यभिचार, बेहद शौक करना इत्यादि जो गुनाह मुझसे जाने-अनजाने हुए हों और जो गुनाह साफ दिल से मैंने प्रकट न किए हों, उन सबसे मैं पवित्र होकर अलग होता हूँ। ईसाई धर्म में भी पापदेशना आवश्यक मानी गई है।'.. कायोत्सर्ग आवश्यक - कायोत्सर्ग शब्द का शाब्दिक अर्थ है शरीर का उत्सर्ग करना। लेकिन जीवन रहते हुए शरीर का त्याग सम्भव नहीं। यहाँ शरीरत्याग का अर्थ है शारीरिक चंचलता एवं देहासक्ति का त्याग। किसी सीमित समय के लिए शरीर पर होने वाले ममत्व का त्याग कर शारीरिक क्रियाओं की चंचलता को समाप्त करने का प्रयास करना ही कायोत्सर्ग है। जैन साधना में कायोत्सर्ग का महत्त्व बहुत अधिक है। प्रत्येक अनुष्ठान के पूर्व कायोत्सर्ग करने की परम्परा है। वस्तुत: देहाध्यास को समाप्त करने के लिए कायोत्सर्ग आवश्यक है। कायोत्सर्ग शरीर के प्रति ममत्व भाव को कम करता है। प्रतिदिन जो . कायोत्सर्ग किया जाता है वह चेष्टा कायोत्सर्ग है अर्थात् उसमें एक निश्चित समय के लिए समग्र शारीरिक चेष्टाओं का निरोध किया जाता है एवं उस समय शरीर पर होने वाली क्रियाओं को उपसर्ग के समान समभाव पूर्वक सहन किया जाता है। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में शुद्ध कायोत्सर्ग के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रकाश डालते हुए लिखा है - 'चाहे कोई भक्तिभाव से चन्दन लगाए, चाहे कोई देषवश वसूले से छीले, चाहे जीवन रहे, चाहे उसी क्षण मृत्यु आ जाए, परन्तु जो साधक देह में आसक्ति नहीं रखता है, उक्त सभी प्रकार की परिस्थितियों में समभाव रखता है, वस्तुत: उसी के कायोत्सर्ग होता है। ..... देवसिक, रात्रिक आदि नियम क्रियाओं में आगम में कथित प्रमाण केदारा जिनेन्द्र 1. दर्शन और चिन्तन, भाग 2, पृ. 193. 2. मूलाचार, गाथा, 23. 126
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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