________________ आचार्य हरिभद्र ने प्रतिक्रमण के तीन भेदों का उल्लेख किया है - 1. प्रमादवश - स्वस्थान से परस्थान में गये हुए साधक का पुन: स्वस्थान में लौट आना यह प्रतिक्रमण है। 2. क्षायोपशमिक भाव से औदयिक भाव में परिणत हुआ साधक जब पुन: औदयिकभाव से क्षायोपशमिक भाव में लौट आता है तो यह भी प्रतिकूल गमन के कारण प्रतिक्रमण कहलाता है। 3. अशुभ आचरण से निवृत्त होकर मोक्ष फलदायक रूप शुभ आचरण में नि:शल्य भाव से प्रवृत्त होना प्रतिक्रमण है।' प्रतिक्रमण के अन्य तरह से भी भेद मिलते हैं, जो कि निम्न हैं - 1. सर्वातिचार - दीक्षा ग्रहण से लेकर तपश्चरण के काल तक जो दोष लगे हों उनकी शुद्धि करना। 2. त्रिविध - जल के बिना तीन प्रकार का आहार का त्याग करने में जो अतिचार . लगे हों उनका शोधन करना। 3. उत्तमार्थ - जीवन पर्यन्त जल पीने का त्याग किया था उसके दोषों की शुद्धि करना। काल सापेक्ष होने वाले प्रतिक्रमण के निम्न भेदों का प्रचलन ही अब सर्वत्र उपलब्ध होता है - 1. दैवसिक, 2. रात्रिक, 3. ऐापथिक, 4. पाक्षिक, 5. चातुर्मासिक, 6. . सांवत्सरिक और 7. उत्तमार्थ / इस प्रकार प्रतिक्रमण के सात प्रकार भी होते हैं। प्रतिक्रमण और बौद्धपरम्परा - तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतिक्रमण की परम्परा न्यूनाधिक रूप में सभी परम्पराओं में रही है। बौद्धधर्म में प्रतिक्रमण के स्थान पर, प्रतिकर्म, प्रवारणा और पाप देशना नाम मिलते हैं। बुद्ध की दृष्टि में पापदेशना का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे कहते हैं - खुला हुआ पाप नहीं रहता अर्थात् पापाचरण की आलोचना करने पर व्यक्ति पाप के भार से हल्का हो जाता है। बौद्ध आचार एवं दर्शन में प्रावरणा के नाम से पाक्षिक प्रतिक्रमण परम्परा स्वीकार की गई है। बोधिचर्यावतार में तो आचार्य शान्तिदेव ने पापदेशना के रूप में दिन और रात्रि में तीन बार प्रतिक्रमण का निर्देश किया है। वे लिखते हैं - तीन बार रात में और तीन बार दिन में त्रिस्कन्ध की आवृत्ति करना चाहिए। इससे अनजान में हुई विपत्तियों का शमन हो जाता है। प्रतिक्रमण और वैदिक तथा अन्य परम्पराएँ - वैदिक परम्परा में संध्या 1. आवश्यकटीका (उद्धरण) श्रमणसूत्र, पृ. 84. 2. मूलाचार, गाथा 120,613, 3. बोधिचर्यावतार, 5/98. 4. वही, पृ. 193-4. 125