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________________ व्यक्ति वर्ष भर जो कुछ यज्ञ व हवन आदि करता है उसका फल पुण्यात्माओं के अभिवादन के फल का चौथा भाग भी नहीं होता। अत: सरल वृत्ति महात्माओं का अभिवादन करमा ही अधिक श्रेयस्कर है।' मनुस्मृति में भी कहा है कि - अभिवादनशील और वृद्धों की सेवा करने वाले व्यक्ति की आयु, विद्या, यश और बल ये चारों बातें सदैव बढ़ती रहती हैं। गीता में भी वन्दना को साधना का आवश्यक अंग माना है तभी तो गीता के अन्त में 'माम् नमस्कुरु' . कहकर वन्दना का निर्देश किया है।' इसी तरह भागवतपुराण में नवधाभक्ति में वन्दन भी भक्ति का एक प्रकार है। वन्दना करते समय स्वार्थ-भाव, आकांक्षा, भय और अनादर का भाव होना तथा योग्य सम्मानसूचक वचनों का सम्यक् प्रकारसे उच्चारण नहीं करना तथा शारीरिक रूप से सम्मान विधि का परिपालन नहीं करना आदि वन्दना के दोष हैं। उपर्युक्त दोषों से रहित वन्दना के निर्दिष्ट अवसरों पर वन्दना करना यह साधक का आवश्यक कर्त्तव्यं है। ज्ञानार्णव में इसका विवरण वृद्धसेवा की प्रशंसा प्रकरण में उपलब्ध होता है। . प्रतिक्रमण आवश्यक - निन्दा और गर्दा पूर्वक मन, वचन, काय के द्वारा द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के विषय में किये गए अपराधों का शोधन करना प्रतिक्रमण है।' मन, वचन और काय से जो अशुभ आचरण हो जाता है अथवा दूसरों के द्वारा कराया जाता है और दूसरे लोगों के द्वारा आचरित पापाचरण का जो अनुमोदन किया जाता है, उन सबकी निवृत्ति के लिए कृतपापों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। व्यक्ति को अपनी जीवन यात्रा में कषायवश पद-पद पर अन्तरंग, बाह्य दोष लगा करते हैं, जिनका शोधन एक श्रेयोमार्गी के लिए आवश्यक है। भूतकाल में जो दोष लगे हैं उनके शोधनार्थ प्रायश्चित्त या पश्चात्ताप व गुरु के समक्ष अपनी निन्दा, गर्दा करना प्रतिक्रमण कहलाता है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने प्रतिक्रमण का वर्णन करते हुए कहा है कि - 'अनाचार को छोड़कर आचार में, उन्मार्ग त्याग करके जिनमार्ग में शल्य भाव को छोड़कर नि:शल्य भाव में, अगुप्ति भाव को छोड़कर त्रिगुप्ति भाव में, आर्त-रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान वा शुक्लध्यान में, मिथ्यादर्शन को छोड़कर सम्यग्दर्शन की भावना करता है वह प्रतिक्रमण है।' 1. धम्मपद, 108. 3. गीता, 18/65. 5. मूलाचार, गाथा, 26. 2. मनुस्मृति, 2/121. 4. भागवतपुराण, 7/5/23. 6. नियमसार, गाथा, 184. . 124
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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