________________ बड़े गुरु का और स्वगुरु का कृतिकर्मपूर्वक अथवा बिना कृतिकर्म के मन, वचन, काय की विशुद्धि द्वारा विधिपूर्वक प्रणाम करना वन्दना है।'' साधना के आदर्श रूप में तीर्थकर देव की उपासना के पश्चात् साधनामार्ग के पथ-प्रदर्शक गुरु की विनय करना वन्दन है। वन्दन, मन, वचन और काया का वह प्रशस्त व्यापार है जिससे पथ-प्रदर्शक गुरु एवं विशिष्ट साधनारत साधकों के प्रति श्रद्धा और आदर प्रकट किया जाता है। इसमें उन व्यक्तियों को प्रणाम किया जाता है जो साधनापथ पर अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए हैं। जैन विचारधारा के अनुसार जो चारित्र एवं गुणों से सम्पन्न हैं, वे ही वन्दनीय हैं। द्रव्य (बाह्य) और भाव (अन्तरंग) दोनों दृष्टियों से शुद्ध संयमी पुरुष ही वन्दनीय होता है। आचार्य भद्रबाहु ने यह निर्देश किया है कि जिस प्रकार वही सिक्का ग्राह्य होता है जिसकी धातु भी शुद्ध हो और मुद्रांकन भी ठीक हो, उसी प्रकार द्रव्य और भाव दोनों दृष्टियों से शुद्ध व्यक्ति ही वन्दन का अधिकारी होता है। वन्दन करने वाला व्यक्ति विनय के द्वारा लोकप्रियता प्राप्त करता है। भगवती सूत्र के अनुसार वन्दन के फलस्वरूप गुरुजनों के सत्संग का लाभ होता है। सत्संग से शास्त्रश्रवण, शास्त्रश्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान फिर क्रमश: प्रत्याख्यान, संयम, अनास्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया एवं अन्त में सिद्धि की उपलब्धि हो जाती है। वन्दन का मूल उद्देश्य है जीवन में विनय को स्थान देना। आचार्य कुन्दकुन्द ने विनय की महत्ता प्रकट करते हुए लिखा है कि - विनय मोक्ष का दार है। विनय से संयम, तप और ज्ञान होता है। विनय के द्वारा आचार्य और सर्वसंघ आराधित होता है। कीर्ति, मैत्री, मान का भंजन, गुरुजनों में बहुमान, तीर्थंकरों की आज्ञा का पालन और गुणों का अनुमोदन, ये सब विनय के गुण हैं।' ' श्रमण साधकों में दीक्षा पर्याय के आधार पर वन्दन किया जाता है। सभी पूर्व दीक्षित साधक वन्दनीय होते हैं। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं में श्रमण जीवन की वरिष्ठता और कनिष्ठता ही वन्दन का मूल आधार है। यद्यपि दोनों परम्पराओं में दीक्षा की दृष्टि से वरिष्ठ श्रमणों को भी कनिष्ठ या नवदीक्षित श्रमण को प्रतिवन्दना करने का विधान है। गृहस्थ साधकों के लिए सभी श्रमण-श्रमणी तथा आयु में वृद्ध गृहस्थ यथायोग्य वन्दनीय हैं। वन्दना के सम्बन्ध में बुद्ध का कथन है कि पुण्य की अभिलाषा करता हुआ 1. मूलाचार, गाथा, 25. . 2. आवश्यकनिर्युक्त, 1138 3. उत्तराध्ययन, 29/10. 4. भगवतीसूत्र, 2/5/112. 5. मूलाचार, गाथा 386, 388. 123