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________________ विचारकों ने यह भी स्वीकार किया है कि भगवान् की स्तुति के माध्यम से मनुष्य अपना आध्यात्मिक विकास कर सकता है। यद्यपि प्रयत्न व्यक्ति का ही होता है. तथापि साधना के आदर्श उन महापुरुषों का जीवन उसकी प्रेरणा का निमित्त होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि स्तवन से व्यक्ति की दर्शनविशुद्धि होती है। यह भी कहा है कि भगवद्भक्ति के फलस्वरूप पूर्वसंचित कर्मों का क्षय होता है। यद्यपि इसका कारण परमात्मा की कृपा नहीं, वरन् व्यक्ति के दृष्टिकोण की विशुद्धि ही है।' आचार्य कुन्दकुन्द देव भगवान् की स्तुति करते हुए कहते हैं - जो उत्कृष्ट भक्ति सम्बन्धी राग से जिनेन्द्र देव के चरण कमलों को नमस्कार करते हैं वे उत्तम भाव रूपी शस्त्र के द्वारा संसार रूपी लता के मूल को उखाड़ देते हैं। ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने शान्तिनाथ तीर्थंकर को नमस्कार करना, विश्वविघ्नों की शान्ति करने वाला बताया है।' जैन विचार में स्तुति के दो रूप माने गए हैं - द्रव्य और भाव। सात्त्विक वस्तुओं द्वारा तीर्थंकर की प्रतिमा की पूजा करना द्रव्यस्तव है और भगवान् के गुणों का स्मरण करना भावस्तव है। द्रव्यस्तव के पीछे मूलत: यही भावना होती है कि उसके माध्यम से मनुष्य ममत्व का त्याग करे। वस्तुओं सम्बन्धी ममत्व का त्याग कर देना ही द्रव्यस्तव का प्रयोजन है। द्रव्यस्तव केवल गृहस्थ उपासकों के लिए है। क्योंकि साधु को न तो ममत्व होता है और न उसके पास कोई संग्रह, अत: उसके लिए भावस्तव ही मुख्य माना जाता है। वस्तुत: स्तवन का मूल्य आदर्श को उपलब्ध करने वाले महापुरुषों की जीवनगाथा के स्मरण के द्वारा साधना के क्षेत्र में प्रेरणा प्राप्त करना है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं - हे नाथ, आप तो वीतराग हैं, आपको अपनी पूजा से कोई प्रयोजन नहीं है। आप न पूजा करने वालों से खुश होते हैं और न निन्दा करने वालों से नाराज, क्योंकि आपने तो बैर का पूरी तरह वमन कर दिया है। तब यह निश्चित है कि आपके पवित्र गुणों का स्मरण हमारे चित्त को पाप रूप कलंकों से हटाकर पवित्र बना देता है। योगसूत्र में लिखा है कि ईश्वरप्रणिधान में ढ़प्रतिष्ठित होने से समाधि की सिद्धि होती है। इस स्तव नामक आवश्यक में योग प्ररूपित ईश्वरप्रणिधान नामक नियम से स्तव नामक आवश्यक की तुलना की जा सकती है। वन्दना आवश्यक - श्रीमद् वदृकेराचार्य ने मूलाचार में वन्दना आवश्यक का स्वरूप इन शब्दों में लिखा है - 'अर्हन्त, सिद्ध और उनकी प्रतिमा तप में, श्रुत या गुणों में 1. उत्तराध्ययन, अजितजिनस्तवन. 2. भावपाहुड, गाथा 151. 3. ज्ञानार्णव 114 4. स्वयंभू स्तोत्र पद्य 57 5. योग सूत्र 2/45 122
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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