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________________ शय्या, इत्यादि पदार्थ अन्त:करण की कल्पना से किञ्चिन्मात्र भी उत्कृष्ट नहीं दीखते उस मुनि को आर्य - सत्पुरुष परम उपशान्तरूप पदवी को प्राप्त हुआ कहते हैं। वनादिक से नगरादिक में कुछ भी उत्तमता न मानें वही मुनि रागद्वेष रहित साम्यभावयुक्त है।' साम्यभावधारक योगीश्वरों का माहात्म्य - ग्रन्थकार ने साम्यभाव के माहात्म्य का कथन करते हुए लिखा है - जिस प्रकार शरद ऋतु में अगस्त्य तारा के संसर्ग होने से जल निर्मल हो जाता है। उसी प्रकार समतायुक्त योगीश्वरों की संगति से जीवों के मलिन चित्त भी प्रसन्न अर्थात् निर्मल हो जाते हैं। समभावयुक्त योगीश्वरों के प्रभाव से ग्रह, यक्ष, किन्नर, मनुष्य ये क्षोभ को प्राप्त होते हैं और नाकेश्वर अर्थात् इन्द्रगण हर्षित होते हैं तथा हाथी दैत्य सिंह अष्टापद, सर्प इत्यादि क्रूर प्राणी अपनी क्रूरता को छोड़ देते हैं और यह जगतोग, बैर, प्रतिबन्ध, विभ्रम, भयादिक से रहित हो जाता है। इस पृथ्वी में ऐसा कौन-सा कार्य है, जो योगीश्वरों के समभावों से साध्य न हो अर्थात् समभावों से सर्वमनोवांछित सधते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा जगत में किरणों से झरता हआ सघन अमृत वर्षाता है, सूर्य तीव्र किरणों के समूह से अन्धकार का नाश करता है, पृथ्वी समस्त भुवनों को धारण करती है तथा पवन इस समस्त लोक को धारण करता है, उसी प्रकार मुनीश्वर भी,साम्यभावों से जीवों के समूह को शान्तभाव रूप करते हैं। क्षीण हो गया है मोह जिसका और शान्त हो गया है कलुष कषाय रूपमैल जिसका ऐसे समभावों में आरुढ हए योगीश्वर को आश्रय करके हरिणी तो सिंह के बालक को अपने पुत्र की बुद्धि से स्पर्श करती वा प्यार करती है और गौ हे सो व्याघ्र के बच्चे को पुत्र की बुद्धि से प्यार करती है, मार्जारी हंस के बच्चे को स्नेह की दृष्टि से वशीभूत हो स्पर्शती है तथा मयूरनी सर्प के बच्चे को प्यार करती है, इसी प्रकार अन्य प्राणी भी जन्म से जो बैर है उसको छोड़कर मदरहित हो जाते हैं। यह साम्यभाव का ही प्रभाव है। बौद्धदर्शन में भी यह समत्ववृत्ति स्वीकृत है। धम्मपद में कहा गया है - सब पापों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है। - गीता के अनुसार सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि, सुख-दु:ख, लौह-कंचन, प्रिय-अप्रिय और निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध (आरम्भ) का परित्याग ही नैतिक जीवन का लक्षण है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन ! तू अनुकूल और प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव धारण कर। गृहस्थ साधक सामायिक व्रत सीमित समय कम-से-कम 48 मिनिट के लिए 1. ज्ञानार्णव, 24/27-8. 2. ज्ञानार्णव, 24/23-6. 3. धम्मपद, 183. 4. मूलाचार, गाथा, 26. 5. गीता 18/16. 119
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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