________________ ग्रहण करता है। आवश्यक कृत्यों में इसको स्थान देने का प्रयोजन यह है कि साधक चाहे वह गृहस्थ हो या श्रमण, सदैव यह स्मृति बनाए रखे कि वह समत्व योग की साधना के लिए साधनापथ में प्रस्थित हुआ है। अपने निषेधात्मक रूप में सामायिक सावध कार्यों अर्थात् पापकार्यों से विरक्ति है, तो अपने विधायक रूप में वह समत्व भाव की साधना है। स्तव आवश्यक - ऋषभ आदि तीर्थंकरों के नाम का कथन और गुणों का कीर्तन करके तथा उनकी पूजा करके उनको मन, वचन, काय पूर्वक नमस्कार करना स्तव नाम का दूसरा आवश्यक जानना चाहिए।' जैन दर्शन और आचार के अनुसार प्रत्येक साधक का यह कर्त्तव्य है कि वह नैतिक एवं साधनात्मक जीवन के आदर्श पुरुष के रूप में जैन तीर्थंकरों की स्तुति करें। जैन साधना में स्तुति का स्वरूप बहुत कुछ भक्तिमार्ग की जपसाधना या नामस्मरण से मिलता है। स्तुति अथवा भक्ति के माध्यम से साधक अपने अहंकार का नाश और सद्गुणों . के प्रति अनुराग की वृद्धि करता है। फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि जैन-विचारधारा के अनुसार साधना के आदर्श के रूप में जिसकी स्तुति की जाती है, उन आदर्श पुरुषों से किसी प्रकार की लौकिक उपलब्धि की अपेक्षा नहीं होती। तीर्थंकर एवं सिद्ध परमात्मा . किसी को कुछ नहीं देते, वे मात्र साधना के आदर्श हैं, तीर्थंकर न तो किसी को बुद्धिपूर्वक संसार से पार करते हैं और न किसी प्रकार की उपलब्धि में सहायक होते हैं। फिर भी स्तुति के माध्यम से साधक उनके गुणों के प्रति अपनी श्रद्धा को सजीव बना लेता है। साधक के सामने उनका महान् आदर्श जीवन्त रूप में उपस्थित हो जाता है। साधक भी अपने हृदय में तीर्थंकरों के आदर्श का स्मरण करता हुआ आत्मा में एक आध्यात्मिक पूर्णता की भावना प्रकट करता है / वह विचार करता है कि आत्मतत्त्व के रूप में मेरी आत्मा और तीर्थकरों की आत्मा समान ही है। यदि मैं स्वयं प्रयत्न करूँ तो उनके समान ही बन सकता हूँ। मझे अपने पुरुषार्थ से उनके समान बनने का प्रयत्न करना चाहिए। जैन तीर्थंकर गीता के कृष्ण के समान यह उद्घोषणा नहीं करते कि तुम मेरी भक्ति करो, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्त कर दूंगा। जैन और बौद्ध मान्यता तो यह है कि व्यक्ति अपने ही प्रयत्नों से आध्यात्मिक उत्थान या पतन कर सकता है। स्वयं पाप से मुक्त होने का न प्रयत्न करके केवल भगवान् से मुक्ति की प्रार्थना करना जैन-विचारणा की दृष्टि से सर्वथा निरर्थक है। ऐसी विवेकशून्य प्रार्थनाओं ने मानव जाति को सब प्रकार से हीन-दीन एवं परापेक्षी बनाया है। जब मनुष्य किसी ऐसे उद्धारक में विश्वास करने लगता है, तो उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर उसे पाप से उबार लेगा। ऐसी आस्था से सदाचार की मान्यताओं को गहरा धक्का लगता है। 1. आवश्यकचूर्णि (उद्धरण), श्रमणसूत्र, पृ. 80. 2. जैनदर्शन और भगवदगीता का तुलनात्मक अध्ययन 120