________________ इस आवश्यक को छह भेदों में विभाजित किया जाता है, जिनके नाम निम्नत: हैं - 1. सामायिक, 2. चतुर्विशतिजिनस्तव, 3. वन्दना, 4. प्रतिक्रमण, 5. कायोत्सर्ग और 6. प्रत्याख्यान।' सामायिक आवश्यक - सम आय अर्थात् समताभाव का आना ही सामायिक है। अर्थात् देहधारण और प्राणवियोग में, इच्छित वस्तु का लाभ-अलाभ, इष्टानिष्ट के संयोग-वियोग, सुख-दुःख, भूख-प्यास आदि बाधाओं में राग-द्वेषरहित परिणाम होना सामायिक है। जो मन, वचन और काय की पापपूर्ण प्रवृत्तियों से हटाकर आत्म स्वरूप में तल्लीन होना, उसे सामायिक कहते हैं। __ जैनदर्शन में समत्व की साधना नैतिक जीवन का अनिवार्य तत्त्व है। वह नैतिक . साधना का अथ और इति दोनों हैं। समत्व साधना के दो पक्ष हैं - बाह्य रूप में वह सावध (हिंसक) प्रवृत्तियों का त्याग और आन्तरिक रूप में वह सभी प्राणियों के प्रति आत्मभाव तथा सुख-दुःख, जीवन-मरण, लाभ-अलाभ, निन्दा-प्रशंसा में समभाव रखना है। . लेकिन दोनों पक्षों से भी ऊपर वह विशुद्ध रूप में आत्मरमण या आत्मसाक्षात्कार का प्रयत्न है। सामायिक कोई रुढ़ क्रिया नहीं, वह तो समत्व वृत्ति रूप पावन आत्मगंगा में अवगाहन है। ज्ञानार्णव में आचार्य शुभचन्द्र ने समत्वयोग (साम्यभाव) का वर्णन करते हुए साम्यभावधारक योगी की अवस्था को इन शब्दों में स्पष्ट किया है - जिस मुनि का चित्त महलों के शिखर में और स्मशान में तथा स्तुति और निन्दा के विधान में कीचड़ और केशर में पल्यंक-शय्या और काँटों के अग्रभाग में पाषाण और चन्द्रकान्तमणि में चर्म और चीनदेशीय रेशम के वस्त्रों में, और क्षीणशरीर व सुन्दर स्त्री में अतुल्य शान्तभाव के प्रभाव से विकल्पों से स्पर्शित न हो, वही एक प्रवीण मुनि समभाव की लीला के विलास का अनुभव करता है अर्थात् वास्तविक समभाव ऐसे मुनि के ही जानना। जिस मुनि की ऐसी वृत्ति हो कि कोई तो नमीभूत होकर पारिजात के पुष्पों से पूजा करता है और कोई मनुष्य क्रुद्ध होकर मारने की इच्छा से गले में सर्प की माला पहनाता है, इन दोनों में ही जिसकी सदा रागद्वेष रहित समभावरूप वृत्ति हो, वही योगीश्वर समभाव रूपी आराम (क्रीड़ावन) में प्रवेश करता है और ऐसे समभाव रूप क्रीड़ावन में ही केवलज्ञान के प्रकाश होने का अवकाश है। जिस मुनि के मन में वन से नगर, शत्रु से मित्र, लोष्ट से कांचन (सुवर्ण), रस्सी व सर्प से पुष्पमाला, पाषाणशिला से चन्द्रमा समान उज्ज्वल 1. मूलाचार गाथा, 1/22., योगसार प्राभृत 5/46 2. मूलाचारगाथा, 23, योगसारप्राभृत 5/47, उत्तराध्ययन, 19/90-1, प्रवचनसार, 3/41 3. ज्ञानार्णव 24/29 118