________________ लिए धारण किया जाता है वह नियम है और जो जीवन पर्यन्त के लिए त्याग किया जाता है उसे.यम कहते हैं।' श्रावक भोजन, वाहन आदि का कुछ समय के लिए त्याग करता है उसका वह नियम है। इसके अतिरिक्त नियम की दूसरी परिभाषा आचार्य कुन्दकुन्द देव ने ढी है - 'नियमसे जो करने योग्य है वह नियम जैनढर्शन का रत्नत्रय है। इस परिभाषा के अनुसार योगसूत्र में मान्य शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान इन नियम के भेदों का अन्तर्भाव रत्नत्रय में ही हो जाता है, इससे ऐसा माना जा सकता है कि आचार्य शभचन्द्र ने रत्नत्रय का वर्णन किया किन्तु नियमों का अलग से उल्लेख नहीं किया अत: उनको आचार्य कुन्दकुन्द देव द्वारा स्वीकृत नियम का लक्षण मान्य होगा, ऐसा प्रतीत होता है। शौच, संतोष और तप को चारित्र में गर्भित करने पर चारित्र के भेद पाँच महाव्रतों में से अपरिग्रहत्याग महाव्रत एवं ब्रह्मचर्य महाव्रत में शौच और संतोष नियमों का एवं तप चारित्र का ही एक विशेष भेद है। जैसे कि तप के दो भेद हैं - अन्तरंग और बहिरंग। इनमें बहिरंग के अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, कायक्लेश ये छह भेद हैं। अन्तरंग तप के भी प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ये छह ही भेद हैं। इनमें चौथा स्वाध्याय नियम सम्यग्ज्ञान में गर्भित समझना चाहिए। ईश्वरप्रणिधान को सम्यग्दर्शन में गर्भित कर सकते हैं। क्योंकि सच्चे देव, गुरु, शास्त्र के श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहते हैं जिनके प्रति श्रद्धा होती है, उनके प्रति भक्ति, अनुराग, स्मरण, मनन, चिन्तन होता ही है। इस तरह योगसूत्र में विवेचित . नियमों का अन्तर्भाव रत्नत्रय में ही हो जाता है। अत: रत्नत्रय को नियम के रूप में स्वीकार करना युक्तिसंगत लगता है।' आवश्यक जैन आचार दर्शन में आचरण के कुछ ऐसे सामान्य नियम हैं, जिनका पालन करना गृहस्थ और श्रमण, दोनों के लिए आवश्यक है। ऐसे वे आवश्यक नियम छह हैं। इसलिए इन्हें षट् आवश्यक के नाम से जाना जाता है। सामान्य लक्षण - जो कषाय राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है, और उस अवश का जो आचरण है वह आवश्यक है। अथवा जो इन्द्रियों के वश्य - आधीन नहीं होता उसको अवश्य कहते हैं। ऐसे संयमी के अहोरात्रिक - दिन और रात में करने योग्य कर्मों का नाम ही आवश्यक है। अतएव व्याधि आदि से ग्रसित हो जाने पर भी इन्द्रियों के वश न पड़कर जो दिन और रात के काम मुनियों को करने ही चाहिए उन्हीं को आवश्यक कहते हैं। 1. नियमपरिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते। - रत्नकरण्डश्रावकाचार, 87. 2. नियमेण य जं कज्जं तण्णियमंणाणदंसणचरित्तं। - नियमसार, गाथा 3. 3. मूलाचार गाथा 515 ___4. अनगार धर्मामृत 8/16 117