________________ अंगीकार करके भव्य पुरुष शीघ्र ही कर्मों से छूटता है। निश्चय करके इस रत्नत्रय को अखंडित (परिपूर्ण) आराधन करके ही संयमी मुनि आज तक पूर्वकाल में मोक्ष गये हैं, वर्तमान में जा रहे हैं तथा भविष्य में जाएंगे। और इस रत्नत्रय को प्राप्त न होकर करोड़ों जन्म धारण करने पर भी कोई मुक्ति रूपी लक्ष्मी के मुखरुपी कमल को साक्षात् नहीं देख सकता।' जैन परम्परा के लगभग प्रत्येक ग्रन्थ में रत्नत्रय के महत्त्व को प्रख्यापित किया गया है। उनमें क्या आचार्य कुन्दकुन्द और क्या आचार्य यतिवृषभ, क्या आचार्य वीरसेन या कोई अन्य आचार्य, सभी ने समस्वर से इसकी महिमा प्रकट की है। जिनके सन्दर्भ भी पदे-पदे उपलब्ध हैं। नियम - यह योग का दूसरा अंग है। योगसूत्र में सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को नियम कहा गया है। यम का विधान जहाँ सार्वकालिक और सार्वदेशिक है। वहीं नियम का विधान मर्यादित और देशकाल से सम्बद्ध है। समाधिसार ग्रन्थ में शौच, ' तप, सन्तोष, स्वाध्याय, देवस्मरण यह पाँच प्रकार का नियम बताया गया है। ज्ञानार्णव में परिग्रह वा आशा की हेयता बतलाते हुए कषायों के छोड़ने, राग, द्वेष, मोह व इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने और समताभाव धारण करने इत्यादि का जो स्थान-स्थान पर उपदेश दिया गया है वह सब नियम का ही रूप है। रूपस्थ और रूपातीत ध्यान के अन्तर्गत जो सकल परमात्मा, अष्टप्रातिहार्य समन्वित अरहंतदेव के स्वरूप के चिन्तवन (ध्यान) करने और रूपातीत ध्यान में निकल परमात्मा - सिद्धों के निरंजन स्वरूप के ध्यान करने का निर्देश है उसकी योगसूत्र में कथित ईश्वरप्रणिधान नामक नियम से तुलना की जा सकती है। यद्यपि परमात्मा के स्वरूप के विषय में जैन परम्परा और वैदिक परम्परा में किञ्चित् भिन्नता हो सकती है। ___ जैनदर्शन का ध्येय है - आध्यात्मिक अनुभव / आध्यात्मिक अनुभव का अर्थ स्वतन्त्र आत्मा का, ईश्वर में मिल जाना नहीं, किन्तु अपने स्वतन्त्र व्यक्तित्व का अनुभव करना है। जैनदर्शन की दृष्टि में प्रत्येक आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता है। प्रत्येक आत्मा अनन्त शक्ति सम्पन्न है। आत्मा और परमात्मा सर्वथा भिन्न सत्तात्मक तत्त्व नहीं है। अशुद्ध दशा में जो आत्मा होती है वही शुद्ध दशा में परमात्मा बन जाती है। अशुद्ध दशा में आत्मा के ज्ञान और शक्ति जो आवृत्त होते हैं वे शुद्ध दशा में पूर्ण विकसित हो जाते हैं। जैन आचार सिद्धान्त के अनुसार श्रावकों के बारह व्रतों में भोगोपभोगपरिमाण व्रत में यम-नियम का स्वरूप बताया गया है। वहाँ कहा गया है कि जो परिमित काल के 1. ज्ञानार्णव 18/21, 23, 24 2. योगसूत्र, 2/32. 3. रत्नकरण्डश्रावकाचार, 87., उपासकाध्ययन, 761. 4. समाधिसार 136. 116