________________ निक्षेपण और प्रतिष्ठापना समिति के सन्दर्भ में कोई निर्देश उपलब्ध नहीं होता, फिर भी इतना निश्चित है कि वैदिक परम्परा का दृष्टिकोण इस सम्बन्ध में जैन परम्परा का विरोधी नहीं है। तीन गुप्तियाँ - पूर्वोक्त महाव्रतों के रक्षण एवं उनकी परिपुष्टि करने के लिए जैन परम्परा में पाँच समितियों और तीन गुप्तियों का विधान है। इन्हें अष्टप्रवचन माता भी कहा जाता है। ये आठ गुण श्रमण-जीवन का संरक्षण उसी प्रकार करते हैं, जैसे माता अपने पुत्र का करती है। इसीलिए इन्हें माता कहा गया है। इनमें तीन गुप्तियाँ श्रमण साधना का निषेधात्मक पक्ष प्रस्तुत करती हैं और पाँच समितियाँ विधेयात्मक। गुप्ति शब्द 'गुप्लु रक्षणे' धातुसे गोपन अर्थ में निष्पन्न होता है। इसके अन्य अर्थ होते हैं खींच लेना या दूर कर लेना / गुप्ति शब्द का दूसरा अर्थ ढंकने वाला या रक्षाकवच भी है। प्रथम अर्थ के अनुसार मन, वचन और काय को अशुभ प्रवृत्तियों से हटा लेना गुप्ति है और दूसरे अर्थ के अनुसार आत्मा की अशुभ से रक्षा करना। ये तीन गुप्तियाँ हैं - 1. मनोगुप्ति, 2. वचनगुप्ति और 3. कायगुप्ति। मनोगुप्ति - रागद्वेष से अवलम्बित समस्त संकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को स्वाधीन कर समताभावों में स्थिर रखता है तथा सिद्धान्त-सूत्र की रचना में निरन्तर प्रेरणा करता है उस बुद्धिमान् मुनि के सम्पूर्ण मनोगुप्ति होती है। * वचनगुप्ति - जो अपने वचन व्यापार पर नियन्त्रण रखता है अथवा जो संज्ञा (संकेत) आदि का परित्याग करके मौन पर आरूढ होता है, उसको स्वीकार करता है उस अतिशय बुद्धिमान् मुनि के वचनगुप्ति होती है। . कायगुप्ति - स्थिर किया है शरीर जिसने तथा परीषह आ जाने पर भी अपने आसनादि में स्थिर रहता है, उससे विचलित नहीं होता उस मुनि के कायगुप्ति मानी गई है। . उत्तराध्ययन सूत्र में मुनि जीवन की अशुभ प्रवृत्तियों से निवृत्त होने के लिए इन तीन गुप्तियों का विधान किया गया है। श्रमण साधक इन तीनों गुप्तियों के द्वारा अपने को अशुभ प्रवृत्तियों से दूर रखे, यही इसका तात्पर्य है। . रत्नत्रय का महत्त्व - __ आचार्य शुभचन्द्र ने रत्नत्रय की महत्ता को स्थापित करते हुए लिखा है - इस त्रिभुवन के पूजित सम्यक्रत्नत्रय को द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप सामग्री के अनुसार 1. ज्ञानार्णव 18/19 2. वही 18/4 3. वहीं 18/15 से 18 तक 4. उत्तराध्ययन 24/1 115.