________________ अविचलित रहकर वापस वन की ओर लौटे। गूंगे की तरह मौन हो, हाथ में पात्र लेकर वह मुनि थोड़ा दान मिलने पर उसकी अवहेलना न करे और न दाता का तिरस्कार करे।' . धम्मपद एवं सुत्तनिपात में मुनि की भाषा-समिति के सम्बन्ध में भी उल्लेख है। धम्मपद में कहा गया है कि जो भिक्षु वाणी में संयत है, मितभाषी है तथा विनीत है, वही धर्म और अर्थ को प्रकाशित करता है, उसका भाषण मधुर होता है। इस प्रकार बुद्ध ने चाहे समिति शब्द का प्रयोग न किया हो, फिर भी उन्होंने परम्परा के समान ही आवागमन, भाषा, भिक्षा एवं वस्तु के आदान-प्रदान व मलमूत्र . विसर्जन आदि प्रवृत्तियों पर विचार किया है। बुद्ध के ये ही विचार उनके जैन परम्परा के निकटतम होने की पुष्टि करते हैं। वैदिक परम्परा और पाँच समितियाँ - वैदिक परम्परा में भी संन्यासी को गमनागमन की क्रियाएँ काफी सावधानीपूर्वक करने का निर्देश दिया गया है। . महर्षि मनु का कथन है कि - संन्यासी को बिना जीवों को कष्ट पहुँचाए चलना चाहिए। जबकि महाभारत के शान्तिपर्व में मुनि को त्रस और स्थावर प्राणियों की हिंसा को बचाकर ही गमनागमन की क्रिया करने का उल्लेख है। भाषासमिति के सन्दर्भ में भी दोनों परम्पराओं में विचारसाम्य है। इसी तरह भिक्षावृत्ति के सम्बन्ध में भी वैदिक परम्परा के कुछ नियम जैन-परम्परा के समान ही हैं। जैसे - भिक्षावृत्ति के सम्बन्ध में दोनों जगह पाँच-पाँच भेद माने हैं। इनका विवरण धर्मशास्त्र का इतिहास के पहले भाग में विस्तार के . साथ देखा जा सकता है। जो निम्न प्रकार है - ____ 1. माधुकर - जिस प्रकार मधुमक्खी विभिन्न पुष्पों से उन्हें कोई कष्ट दिए बिना मधु एकत्रित करती है। उसी प्रकार दाता को कष्ट दिए बिना तीन, पाँच या सात घरों से जो भिक्षा प्राप्त की जाती है वह माधुकर है। 2. प्राक्प्रणीत - शयनस्थान से उठने के पूर्व ही भक्तों के द्वारा भोजन के लिए प्रार्थना कर दी जाती है और उससे जो भोजन प्राप्त होता है, वह प्राक्पणीत है। 3. अयाचित - भिक्षाटन करने के लिए उठने के पर्व ही भोजन के लिए निमन्त्रित कर देना अयाचित है। 4. तात्कालिक - संन्यासी के पहुँचते ही जब कोई ब्राह्मण भोजन करने की सूचना दे वह तात्कालिक है और 5. उपपन्न - मठ में लाया गया पका भोजन उपपन्न है। इन पाँचों में माधुकर भिक्षावृत्ति को ही श्रेष्ठ माना गया है। 1.सुत्तनिपात, 37/32-5. 2. धम्मपद, 363., सुत्तनिपात, 26/11. 3. मनुस्मृति, 6/40., धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1 पृ. 492. 4. महाभारत, शान्तिपर्व, 109/15-9. 5. धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग 1, पृ. 492. 114