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________________ परम-योगाय योगो/ध्यानं ध्यान-सामग्री / साम्यं/स्वास्थ्यं/समाधिश्च,योगश्चेतोनिरोधनं / शुद्धोपयोग इत्येते, भवन्त्येकार्थ-वाचकाः // 1 // न पद्मासनतो योगो, न च नासाग्र-वीक्षणात् / मनसश्चेन्द्रियाणां च, संयोगो योग उच्यते / परमश्चासौ योगः परम-योगः // 2 // विशिष्टयोगधारीत्रियोग से रहित / योग/अलब्ध लाभ को जानने वाले। योग/ध्यान की सामग्री योगियों द्वारा वन्दित आदीश्वर प्रभु थे साम्य, समाधि, योग, चित्त-निरोध शुद्धोपयोग ये सभी एकार्थवाची है।.......... न सिर्फ पद्मासन या नासाग्र दृष्टि से योग होता योग तो इनके होने पर मन और इन्द्रियों के आत्माभिमुखी होने से होता है। आत्माभिमुखी परम योगी / उत्तम योगी कहिलाते है। प्रशान्तारि-रनन्तात्मा, योगी योगीश्वरार्चितः ............... / / 9 / / योग - चेतोनिरोधनं विद्यते यस्य सः योगी योगीश्वरार्चितः। यम-नियमासन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणाध्यानसमाधि-लक्षणा अष्टौ योगाविद्यन्ते येषां ते योगिनः योगिनां मुनीनां ईश्वरा गणधरदेवादयस्तैरर्चितः पूजितः सः अथवा योगी चासौ ईश्वरश्च सयोग-केवली। सचासौ अर्चितः योगीश्वरार्चितः। अथवा योगोविद्यते यस्य सचासौईश्वरः रुद्रः तेनार्चितः / यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार धारणा, ध्यान और समाधिइन आठ योगांगों द्वारा योगी होता है ऐसे योगी भी जिनके पूजक है वे ऋषभदेव हैं। ईश्वर/रुद्र के द्वारा अर्चित भगवान आदिजिनेश्वर। इस तरह से भगवज्जिन सहस्र नाम में महायोगी आचार्य जिनसेन स्वामी ने इन नामों के द्वारा योग, ध्यान व समाधि का वर्णन किया है जो अपूर्व है अमरकीर्ति टीकाकार ने अष्टांग योग के नामों का स्पष्ट उल्लेख किया है। अन्य आशाधरकृत आदि सहस्रनामों के योग ध्यान परक नाम योगविषयक प्रसिद्धी को दर्शाते हैं। इन सब कथनों से सिद्ध होता है कि योग के आदि प्रणेता ऋषभदेव थे। वैदिक आचार्य श्री स्वामिकर्मानन्दजी ने योग के आदि प्रणेता ऋषभदेव नाम की एक पुस्तिका लिखकर सबल प्रमाणों द्वारा यह पुष्ट किया है। तथा वेदों के आधार पर धर्म का आदि प्रवर्तक (इतिहास की एकनवीन खोज) में लेखक स्वामि कर्मानन्द जी ने लिखा है कि पुराना धर्म/योग, पूर्व समय में हिरण्यगर्भ प्रजापति (वृषभ) ने ज्ञानयज्ञ प्रचलित किया था, राह यहां स्पष्ट है उस ज्ञानयज्ञ का प्रचार भारत में नहीं अपितु सर्वत्र फैल गया इसके पश्चात् द्रव्य यज्ञ का आविष्कार हुआ वह भी अहिंसा प्रधान परंतु मूर्ख देवों ने इसके उल्टे अर्थ लगाये और पशु आदि का यज्ञ होने लगा। इससे स्पष्ट सिद्ध है कि सबसे प्रथम ज्ञानयज्ञ/भावयज्ञ (भाव पूजा) का ही आविर्भाव हुआ। उसी भाव पूजा को योगधर्म के नाम से कहा जाता है। वर्तमान पातञ्जलयोग शुद्ध, योग का ग्रन्थ नहीं है अपितु सांख्य मिश्रित योग शास्त्र है। पुरातन योग शास्त्र तो गीता के कथनानुसार पहले ही नष्ट हो चुका था। (viii)
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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