________________ * स चायं दीर्घकालेन योगो नष्टः परतपः / गीता तथा वर्तमान योग के भाष्यकार ने अन्त में लिखा है कि यहां “सांख्यप्रवचनं' इस विशेषण से स्पष्ट है कि सांख्य के आधार के अलावा भी योग शास्त्र यहा था और वह था हिरण्य गर्भ आदिब्रह्मा का बनाया हुआ योगशास्त्र अथवा किसी अन्य नाम से इस विषय का ग्रन्थ। हम अपनी पुष्टि में यजुर्वेद का प्रमाण उपस्थित करते हैं - यज्ञेन यज्ञ-मजयन्त देवाः / यह मंत्र अध्याय 31 में है इसका भाष्य करते हुए भाष्यकार श्री महीधर लिखते हैं कि - यज्ञेन मानसेन संकल्पेन........ यज्ञं यज्ञ-स्वरूपं प्रजापतिमयजन्त ....... / अर्थात् - देवों ने मानस संकल्प रूप यज्ञ से यज्ञस्वरूप प्रजापति की पूजा की। बस हमारा अभिप्राय सिद्ध हो गया कि इन वर्तमान वेदों से पहले जो धर्म थे वे मुख्यतया भावपूजक धर्म थे.......... बस गीता, महाभारत, पुराण, तथा वेद और सम्पूर्ण साहित्य इसकी साक्षी देता है कि वर्तमान नवीन वेदों से पहिले जो यहां धर्म था वह वर्तमान याज्ञिक धर्म से भिन्न आत्मवाद का धर्म था। उसका नाम योगमार्ग/मोक्षमार्ग/(जैन) जिनमार्ग आदि आप कुछ भी रख लें। वर्तमान योग दर्शन भी नवीन योगमार्ग है वह प्राचीन तो नष्ट हो गया। जैसा कि गीता में कहा है - स कालेनेह महता योगो नष्टः परंतपः ..... / वह योग दीर्घकाल से नष्ट हो चुका है। श्रीयुत कर्मानन्द जी के शोध से यह सिद्ध होता है कि विज्ञात योगागम से पूर्व प्रजापति भगवान ऋषभदेव के द्वारा प्रतिपादित योगविद्या के शास्त्र थे जो तीर्थंकर परम्परा द्वारा महावीर तक आए फिर केवली जिनों की परम्परा में श्रुतकेवली भद्रबाहु (चन्द्रगुप्त के गुरु) को प्राप्त हुए इसके पश्चात् क्रमशः उनका ह्रास होता गया। अभी भी उसके अंश जैनागमों में प्राप्त होते हैं मुस्लिम व अंग्रेजों के आक्रमणों में कुछ महत्वपूर्ण जैन वेदों का नाश हो गया। आदिशंकराचार्य के जैनों पर आक्रमण हुए जिसमें अनेक जैन शिक्षालयों/ज्ञान केन्द्रों को परिवर्तित कर नष्ट भ्रष्ट कर दिया गया। बौद्धों के आक्रमणों ने भी जैनागमों को आहत किया। पुण्य से जो भी जैन वेद प्राप्त हैं वे भी पर्याप्त हैं। .. ब्र. डॉ. राजेन्द्र कुमार जी ने जब ज्ञानार्णव जी के सम्बन्ध में शोध की बात की तो सुनते ही आत्मा में योग का संचार हुआ मैं योगविद्या विषयक, योगानुशीलन, योग के आदि प्रणेता भ. ऋषभदेव आदि का आडोलन कर तद्विषयक महत्व से आकर्षित था, अतः सब जानकारी लेकर मन को योगाब्धि में तैराने का प्रयास करने लगा. उससे जो रत्न प्राप्त हुए उनको सम्हालकर रखा दमोह शिविल वार्ड/राजीव कालोनी, सागर वर्धमान कालोनी शान्तिनगर, आदिश्वरगिरि नहटा देवरी के प्रवास काल में ज्ञानपिपास ब्र.राजेन्द्र ने आकर विचार विमर्श मांगा मैं अन्य साहित्यिक कार्य छोड़कर इनके सहयोग में लग गया और इनके द्वारा अनुवादित ध्यानसार को देखकर प्रसन्नता हुई उसका देवरी (बीना वारहा) के चातुर्मास में प्रशिक्षण प्रारंभ किया। कुछ अशुद्धियों का संशोधन किया पर्याप्त विवेचन किया गया। मैं प्रायः आध्यात्मिक शास्त्रों का पद्यानुवाद करता था। अब ब्रह्मचारी जी के सुझाव से अनुपलब्ध अननुवादित शास्त्रों का अनुवाद आदि कार्य प्रारम्भ किया है। (ix)