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________________ वस्तुत: वाणी का विवेक सामाजिक जीवन की महत्त्वपूर्ण मर्यादा है। बर्क का कथन है कि 'संसार को दु:खमय बनाने वाली अधिकांश दुष्टताएँ शब्दों से ही उत्पन्न होती हैं।'' अत: वाणी का विवेक श्रमण और गृहस्थ दोनों के लिए आवश्यक होता है। श्रमण तो साधना की उच्च भूमिका पर स्थित होता है अत: उसे तो अपनी वाणी के प्रति बहुत ही सावधान रहना चाहिए। 3. एषणा समिति - एषणा का सामान्य अर्थ आवश्यकता या चाह होता है। साधक गृहस्थ हो या मुनि, जब तक शरीर का बन्धन है, जैविक आवश्यकताएँ उसके साथ लगी रहती हैं। जीवन धारण करने के लिए आहार, स्थान आदि की आवश्यकताएँ बनी रहती हैं। मुनि को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति अयाचकवृत्ति के द्वारा किस प्रकार करना चाहिए, इसका विवेक रखना ही एषणा समिति है। एषणा का अर्थ खोज या गवेषणा है। इस अर्थ की ही दृष्टि से यहाँ आहार, पानी, वसतिका आदि की विवेकपूर्वक गवेषणा करना एषणासमिति है।' एषणा की शुद्धि सोलह उद्गमदोष, सोलह उत्पादन दोष, दश एषणा दोष, और धुआँ, अंगार, प्रमाण व संयोजन इन चार के मिलाने से होने वाले छयालीस दोषों से रहित होने से होती है। इसके अतिरिक्त इसमें चौदह मलदोष और बत्तीस अन्तरायों का भी परिहार किया जाता है। तात्पर्य यह है कि छयालीस दोषों से रहित और मन-वचनकाय, कृत-कारित-अनुमोदना आदि से रहित तथा शीतादि में समता भाव रूप जो आहार : होता है वह निर्मल एषणासमिति होती है। आचार्य अकलंक स्वामी ने तत्त्वार्थ राजवार्तिक में एषणा का लक्षण लिखते हुए एक सुन्दर रूपक प्रस्तुत किया है, जो निम्नत: है - 'गुण रत्नों को ढोने वाली शरीर रूपी गाड़ी को समाधि नगर की ओर ले जाने की इच्छा रखने वाले साधु का जठराग्नि के दाह को शमन करने के लिए औषधि की तरह या गाड़ी में ओंगन देने की तरह अन्नादि आहार को बिना स्वाद के ग्रहण करना एषणा समिति है। यह देश, काल, प्रत्यय और नव कोटियों से विशुद्ध आहार ग्रहण करने से होती है।' 4. आदाननिक्षेपण समिति - उपयोग में आने वाली प्रत्येक वस्तु को देखभाल कर उठाना या रखना, जिससे कि किसी भी प्राणी की हिंसा न हो, आदाननिक्षेपण हैं। तात्पर्य वस्तुओं के उठाने-रखने आदि में पूर्ण सावधानी रखनी चाहिए। 1. वही, 18/5-7, मूलाचार गाथा 10-11. 2. ज्ञानार्णव, 18/8-9., मूलाचार गाथा 12. 3. आचारांग, 2/3/133-140., दशवैकालिक, अध्ययन 7. 4. अमरवाणी, पृ. 107: तत्त्वार्था राजवार्तिक 9/5/6, पृ. 514 112
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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