________________ गुणभद्र की दृष्टि पवित्रता से भर उठती है, जब वे कहते हैं - 'हर एक जीवों की आशा रूपी गर्त इतना बड़ा है कि जिसमें विश्व ही अणु के समान अत्यल्प है। फिर किसके लिए क्या हिस्से में आएगा ? अत: तुम्हारी विषयों की इच्छा व्यर्थ है।" पञ्च समितियाँ - तेरह प्रकार के चारित्र में, पञ्च महाव्रतों का वर्णन करने के पश्चात् उन व्रतों की सुरक्षा के लिए आचार्यों ने पाँच समितियों का विधान किया है। समिति शब्द की व्याख्या सम्यक् प्रवृत्ति के रूप में की गई है। समिति श्रमण जीवन की साधना का विधायक पक्ष है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार समितियाँ आचरण की प्रवृत्ति के लिए हैं। श्रमण-जीवन में शरीर धारण के लिए अथवा संयम के निर्वाह के लिए जो क्रियाएँ की जाती हैं उनको विवेकपूर्वक संपादित करना ही समिति है। समितियाँ पाँच हैं - 1. ईर्या (गमन), 2. भाषा, 3. एषणा, (निर्दोष आहार ग्रहण), 4. आदाननिक्षेपण और 5: उत्सर्ग। 1. ईर्यासमिति - मुनि प्रसिद्ध सिद्धक्षेत्रों तथा जिनप्रतिमाओं की वन्दना के लिए तथा गुरु आचार्य वा जो तप से बड़े हों उनकी सेवा करने के लिए, बहुत लोग जिसमें गमन करते हे ऐसे मार्ग में दया से आर्द्रचित्त होकर जीवों की रक्षा करता हुआ धीरे-धीरे गमन करे। चलने से पहले ही जिसने युग (चार हाथ प्रमाण) परिमाण मार्ग को भले प्रकार देख लिया हो और प्रमाद रहित हो ऐसी मुनि की ईर्यासमिति कही गई है। मुनि को आवागमन की क्रिया इस प्रकार संपादित करना चाहिए कि उसमें किसी भी प्रकार की हिंसा की संभावना न हो। इन समितियों की समग्र विवेचना में प्रमुख दृष्टि अहिंसा महाव्रत की रक्षा ही है। 2. भाषा समिति - धूर्त (मायावी), कामी, मांसभक्षी, चोर, नास्तिकमती चार्वाकादि से व्यवहार में लाई हुई भाषा तथा संदेह उपजाने वाली वा पापसंयुक्त हो ऐसी भाषा बुद्धिमानों को त्यागनी चाहिए तथा वचनों के दश दोष रहित सूत्रानुसार साधु पुरुषों को मान्य हो ऐसी भाषा को कहने वाले मुनि के उत्कृष्ट भाषा समिति होती है। विवेकपूर्ण भाषा का प्रयोग करना भाषा समिति है। इसके धारक मुनि को सदोष, कर्मबन्ध कराने वाली, कर्कश, परुष, परकोपिनी, अनीति व अनर्थकारी, हृदयविदारिणी, अतिमानिनी, जीवों को आघात और परिताप देने वाली अर्थात् दशधा भाषा नहीं बोलनी चाहिए। वरन् घबराये बिना, विवेकपूर्वक, समभाव रखते हुए और निक्षेप से युक्त हित, मित, मधुर एवं सत्य भाषा बोलना चाहिए। 1. आत्मानुशासन, 36. 2. ज्ञानार्णव, 16/22. 3. वही, 16/39. 4. ज्ञानार्णव, 18/8-9 5. ज्ञानार्णव प्रक्षिप्त श्लोक 18/1-2. 111